कुछ दिनो पहले हिन्दी दिवस था। बचपन में ये दिन सिर्फ इसलिये याद आता था कि मैरे पापा, जो कि बैंक में काम करते हैं, को बैंक के आला अफसरों से ये फरमान आ जाता था कि हिन्दी में बैंक की कार्यवाही प्रोत्साहित की जाये। और हमेशा लगी हुई धूलसरित लकड़ी की पट्टियाँ को, जो की हिन्दी में घोषित करती हैं कि "यहाँ हिन्दी में लिखे और हस्ताक्षकर किये हुए चैक और फॉर्म स्वीवार किये जाते हैं", सालाना झाड़-पोंछ नसीब हो जाती थी। कभी-कबार हिन्दी की एक किताब भी बाँट दी जाती है। जब समझदारी बढ़ी तो हिन्दी दिवस पर कवियों को हिन्दी की दुर्गति गाते हुए भी सुना।कौन माँ चाहेगी कि उसकी कीर्ती के लिये उसकी संतान का हनन किया जाये?
मेरा परिवार सभी साधारण परिवारों की तरह हिन्दी से उतना ही करीब है जितना जरूरत है। ना कभी विशेष दर्जा दिया गया हिन्दी को ना ही अंग्रेजी को। जो बोलते हैं वही बिना सोचे बोल देते है। कुछ ऐसे ही विचारों और व्यक्तिगत सोच ने गत कुछ वर्षों से हिन्दी के प्रति मेरे विशेषाभाव को बढ़ने-घटने ना दिया। मेरा यह मतलब नही कि मुझे हिन्दी पसंद नही, मेरा मतलब है कि कभी हिन्दी को लुप्त होती भाषा की तरह सोचा नही। और शायद इसी कारण मुझे हिन्दी दिवस और हिन्दी के घटते उपयोग पर विशेष सुख या दुःख नही होता।
ना ही मेरा इस चिठ्ठे को लिखने के प्रति उद्देश्य है मेरा हिन्दी प्रेम। मुझे हिन्दी लिपि और भाषा अच्छी लगती और बोलने/लिखने में शर्म नही सो लिखता हूँ। नारद द्वारा पाठको की प्रस्तुति भी एक कारण है। पर फिर भी जिसे जो अच्छा लगे वो बोले मुझे उसमें भी आपत्ति नही। ना ही अपनी तरफ से किसी पर हिन्दी थोपने का पक्षपाती हूँ ना ही हिन्दी छोड़ने का। समय के साथ भाषा का जैसा विकास होगा देखा जायेगा। चूँकि हिन्दी मेरी मातृभाषा है इसलिये इसपर मेरी पकड़ अन्य भाषाओं से बेहतर है और बस यही कारण है कि इसका उपयोग जारी है।
मैं भाषा के स्वतः विकास का समर्थक हूँ। अगर किसी समय हिन्दी की बजाय अन्य भाषा प्रचलित हो जाती है तो जबरजस्ती हिन्दी पढ़ाने का ना मैं शौकीन हूँ ना यह कारगर तरीका है। भाषा विचारों का माध्यम है और कुछ नही (कम से कम सामान्य लोगों के लिये तो)। मेरे महाविद्यालय में एक समूह संस्कृत भाषा के विस्तार में कटिबद्ध था और गावों में स्थानीय तमिल की जगह संस्कृत का उपयोग प्रचलित करने के प्रयास करता था। मुझे उनके प्रयास समय और साधनो की व्यर्थतता ही लगे। भारतीय भाषायें मूलतः संस्कृत की संतति हैं। कौन माँ चाहेगी कि उसकी कीर्ती के लिये उसकी संतान का हनन किया जाये?
ये तो रही हिन्दी की दुर्गति की मेरा नज़रिया। पर मेरे अनुसार धरातल पर हालात इतने बिगड़े नही जितने बताये जाते हैं। हाँ लोग हिन्दी की बजाय अंग्रेजी में शिक्षा ग्रहण कर रहें है पर क्या वे हिन्दी भूल रहे हैं? नवपीढ़ी की नवभाषा अगर कुछ चिन्ह है तो उत्तर होगा नही। पर वे हिन्दी को बदल जरूर रहे हैं। अंग्रेजी, मराठी, पंजाबी, तमिल, आदि भाषाऐं हिन्दी से मिलकर नही हिन्दी बना रही है। जैसा कि पहले उर्दु और फ़ारसी ने किया था। हमे यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ४०% निरक्षर भारत अभी भी हिन्दी (या स्थानीय भाषा) बोलता सुनता है। साक्षर जन का बड़ा हिस्सा हिन्दी में पढ़ता भी है।
क्या हिन्दी लुप्त हो जायेगी? शायद, पर सौ सालों तक तो नही। अगर हो भी जाये तो क्या इतिहास को दबोचे रहना उचित होगा? क्या हिन्दी परिवर्तित हो जायेगी? निश्चित ही। प्रति क्षण हिन्दी बदल रही। पर यही तो भाषा की परिपक्वता और विकास है। उससे क्या डरना? फिर क्यों हिन्दी दिवस मनाना या हिन्दी की घटती लोकप्रियता पर रोना?
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