Sunday, September 3, 2006

चंदामामा दूर के - बालसाहित्य की यादें

बातों-बातों में पता ही नही चला कि इस जुलाई को चंदामामा पत्रिका ने साठ वर्ष पूरे कर लिये हैं। रीडिफ़ पे पत्रिका के संस्थापन और समय के साथ हुए परिवर्तनों पर अच्छा लेख हैउस समय शायद तीन या पाँच रूपये की आती है थी चंपक, और बिना नागा पापा हर पखवाड़े ला देते थे।

बचपन की किताबें सभी को ही बहुत प्रिय होती हैं क्योंकि उन किताबों के साथ उन दिनों की यादें, भावनाऐं, कल्पनाऐं और उत्साह जुड़ा रहता है। फिर मुझे तो शुरू से ही पढ़ने का जरूरत से ज्यादा ही शौक था और अभी भी बरकरार है। शुरूआत चंपक से हुई थी शायद। उससे पहले किसी पुस्तक का नाम यादों के धुंधलके में नही आता। उस समय शायद तीन या पाँच रूपये की आती है थी चंपक, और बिना नागा पापा हर पखवाड़े ला देते थे। अभी भी चंपको के ढेर दिमाग के किसी कोने से झलक पड़ते हैं। फिर नन्हें सम्राट आई, दस बरस का रहा होंऊगा तब। धीरे-धीरे चीकू खरगोश और मीकू बंदर की कहानिओं से बोर हो गया तो फिर बालहंस और नंदन जैसी पत्रिकाओं ने जीवन में प्रवेश किया। नंदन बहुत बेकार लगती थी, हर बार वही राजा-रानी-ऋषी की कहानी, नन्हें सम्राट विशेष प्रिय थी जेम्स बॉन्ड के कारण! उसी वर्ष मैं एक छोटे से गाँव से हटकर ग्वालियर (मध्य प्रदेश) रहने लगा पापा के स्थानांतरण के कारण। ग्वालियर में पहली बार, और शायद आखिरी बार, मेरा सरकारी पुस्तकालय से परिचय हुआ। मानो की खज़ाना मिल गया।

ट्विंकल और अन्य नियमित पत्रिकाओं से वहीं परिचय हुआ। अभी तो नाम भी नहीं याद आते यद्यपि कोई बोले तो तुरंत एम मुस्कुराहट आ जाती है। मुझे अभी भी याद है कि पुस्तकालय में हँसी मना होने के कारण कितनी बार दाँत दबा के और मुँह ठूँस के हँसना पड़ता था। मेरी कई शामें माँ के निर्देश के विरूद्ध वहाँ देर तक बैठे कटी। यहाँ तक की जब मुझे अपने छोटे भाई को अपने साथ ले जाने को कहा गया तो मुझे बहुत बुरा लगता था क्योंकि वो थोड़ी देर में पढ़कर बोर हो जाता था और फिर मुझे उसे छोड़ने के लिये अपनी पढ़ाई छोड़कर घर आना पड़ता था। बालपुस्तकालय में कुछ नियम था ऐसा कि बारह से कम उम्र के बच्चे ही वहाँ सदस्य बन सकते हैं जबकि बड़ों को व्यस्कों के पुस्तकालय में जाना होता जहाँ अखबारों के अलावा कुछ भी नही था! कुछेक घोटाला कर के सदस्य तो बना ही रहा थोड़े दिनों। उन दिनों की, विशेषकर उस पुस्तकालय की याद मेरी जिंदगी का प्रिय हिस्सा है। ग्वालियर से जाने के बाद मुझे आज तक कोई ऐसा पुस्तकालय नही मिला कोटा (राजस्थान) में और फिर पढ़ाई की अन्य जिम्मेदारियाँ भी बढ़ गई।

अपनी उम्र के लोगों से जब बाल साहित्य के वर्णन सुनता हूँ तो हमेशा पाता हूँ कि अमर चित्र कथाऐं मेरी पठन श्रंखला में नही थी जबकि लगभग बाकी सब की में थी। शायद उस इलाके में ज्यादा प्रसिद्ध नही हो।

कोमिक्सों के मामलें में मैं अपने को धन्य ही मानता हूँ। मेरे बुआ के लड़के की कोमिक्स किराये पे देने की दुकान थी और मेरा गर्मिओं में बुआ के यहाँ जाने का एकमात्र उद्देश्य यही होता था कि दिन भर कोमिक्स पढ़ता रहूँ। वास्तव में मेरे अभी रिश्तेदार परेशान थे इस आदत से। नाना जी के यहाँ जाऊँ या बुआ के यहाँ, जहाँ किताबें मिले वहाँ बस यही काम। संगी-साथी और छोटे भाई-बहन खेलने को तरस जाते और मैं होता कि सोना खाना भूल कर एक ही काम। जहाँ किताब नही मिलती वहाँ हिंदी की पाठ्‍य-पुस्तक ही पकड़ लेता।

चौदह-पंद्रह साल तक सरिता, गृहशोभा, मनोरमा जैसी वयस्क पारिवारिक पत्रिकाऐं और फिर मनोहर कहानियाँ जैसी अपराध कथाऐं वाली पुस्तक भी सूची में शामिल हुईं। अब तक बचपन शायद छूट सा गया था और ये भी समझ में आ गया था कि लोगों को समय देना जरूरी है व किताबें रूक सकती हैं। पिछले कई वर्षों से इनमें से एक भी किताब हाथ में नही आई, पर मन करता है कि चंदामामा या ट्विंकल मिले तो पढ़ने के उत्साह में कमी नही होगी।

मेरी अंग्रेजी की किताबों का सफर चालू हुआ महाविद्यालय के द्वितीय वर्ष में टिनटिन से, पर वो फिर कभी और...

Book Review - Music of the Primes by Marcus du Sautoy (2003)

I can say, with some modesty, that I am familiar with the subject of mathematics more than an average person is. Despite that I hadn’t ever ...