आतंकवाद कोई नई खबर नही है। आतंकवाद को रोकने के प्रयासों के द्वारा होने वाली तकलीफे भी अब ज्यादा नई नही हैं। फिर भी जब किसी को हवाई अड्डे पे कड़ी जाँच से गुजरना पड़ता है और इसकी वजह से असुविधा होती है तो तुरंत बोल देता है कि 'इस तरह ही तो आतंकी जीतते हैं'। लोगों का कहना है कि हम आपस में विश्वास करना भूल जाएं, डर-डर कर जियें और परेशानी महसूस करें, यही तो आतंकी चाहते हैं। मुझे ये समझ में नही आता है कि कहाँ से इन लोगों को खयाल आ जाता है कि यही आतंकी चाहते हैं? आतंकी अपने राजनैतिक अथवा धार्मिक कारणों से उन्माद करते हैं और किसी के डरने से उनका मकसद पूरा नही हो जाता। मेरा ये नही कहना कि इंसान को डर कर जीना चाहिये पर जो जायज़ डर है उसके लिये सुरक्षा का उपाय करने में क्या बुराई है? बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि डर से तब तक डरना चाहिये जब तक वो सामने ना हो, जब सामने हो डर भूल कर लड़ना चाहिये। जो लोग आतंकवाद के रोकने के प्रयासों में कड़ी सुरक्षा और असुविधाजनिक नियमों को आतंकवादियों की जीत बताते हैं वो ये क्यों भूल जाते कि अगले हमलें मरने वाले निर्दोष लोगों की जान बचा कर हम आतंकियों को हरा रहें है, ना कि जिता रहें। क्या कुछ बार की असुविधा किसी की जान से ज्यादा प्रिय है?
इसी से जुड़ा एक विषय कई भारतीयों के मन में घृणा और हीनता उतपन्न कर देता है, और वो है हवाईजहाज यात्रा के दौरान, वीज़ा देने के समय, रेलवे में, आदि भूरें लोगों की सामान्य से अधिक जाँच-पड़ताल (racial profiling)। लोग इसे अपना अपमान मान बैठते हैं या यह मान लेते हैं कि सरकार किसी समुदाय विशेष को कुछ चरमपंथियों की हरकतों के लिये दोषी मानती है। मैं भी भूरा हूँ पर मेरी तार्किक समझ में तो ये बात आज तक नही आई। समझदारी मुझे कहती है कि यदि ये संभावना है कि किसी रंग, धर्म, समुदाय या वर्ग के लोग आतंकवादी ज्यादा होते हैं तो उनको रोकने के लिये उस रंग, धर्म, समुदाय या वर्ग के लोगों को विशेष रूप से क्यों ना जाँचा जाये? सांख्यिकी में इसे स्ट्रेटीफाईड सेंपल (stratified sampling) बोलते हैं। और ये तो तथ्य है कि एक समुदाय दूसरें समुदायों की अपेक्षा अधिक जिम्मेदार है, इतिहास इसका गवाह है, उसमें सच-झूँठ, विश्वास-अविश्वास क्या करेगा? तथ्य बदले थोड़े ही जा सकते हैं यदि पसंद नही आएं भी तो। और जब मेरे साथ हवाईजहाज पर ऐसा होता है तो मुझे कोई आफत नही, बल्कि प्रसन्नता होती है। क्योंकि अगर वो मुझ पर शक कर रहें है तो मेरे जैसे दिखने वालों पर भी शक करेंगे, और फिर चूँकि आतंकियों की मेरे जैसे दिखने की संभावना अधिक है तो फिर उनको पकड़ने की संभावना भी अधिक है। अगर पकड़े गये तो किसकी जान बचेगी? मेरी ही ना। भाई मुझे तो अपनी जान की खातिर हवाई यात्रा से पहले कड़ी जाँच किसी भी दिन मंजूर।
सी एन एन - आई बी एन और हिन्दु ने मिलकर एक सर्वेक्षण करवाया और बताया कि भारतीय आतंकवाद से नही डरते। तो किससे डरतें है? चोरी-चकारी और साम्प्रदायिक दंगो से। और इसका निष्कर्ष निकाला गया कि आतंकवाद अभी बड़ी समस्या नही और सरकार जो भी कर रही है ठीक है। जैसा कि नितिन जी ने लिखा ये तो वही हो गया कि आदमी जुकाम से ज्यादा डरता है बजाय दिल के दौरे तो तो दिल का दौरा गंभीर समस्या नही है। और भी बहुत पोल खोली है, जा कर पढ़िये। सिर्फ एक बात, यद्यपि आशानुरूप, बहुत खली, और वो ये है। आप अपने निष्कर्ष स्वतः निकालिये।
Book Review - Music of the Primes by Marcus du Sautoy (2003)
I can say, with some modesty, that I am familiar with the subject of mathematics more than an average person is. Despite that I hadn’t ever ...
-
One of the option on Orkut for describing your looks is "mirror cracking material". I always wondered if it's extreme on posi...
-
How do you fight an enemy who is not afraid of dying and instead covets death? How do you yield or reason with with enemy whose only deman...
-
There is an old saying which goes something like this: great people discuss ideas, good people discuss incidents, ordinary people discuss pe...