जीने के लिये कभी-कभी हमें मौत को भी अपनाना पड़ता है। ये बात इंसानो के लिये प्रत्यक्ष रूप से सही भले ही ना हो, कई जानवरों के लिये जीवन का हिस्सा है। विज्ञान पत्रिका "साइंस न्यूज़" में छपे एक लेख के अनुसार कई प्रजातियाँ भक्षण से बचने के लिये हिंसक जीव के समीप आते ही मौत की चादर औढ़ कर मृत होने का नाटक करने लगतीं हैं। माना जाता है कि शिकारी जानवर को जीवित शिकार में जो मज़ा आता है वो तैयार मिले शिकार में नहीं। क्या शिकारी जानवर इतना बेवकूफ़ हो सकता है कि मौत और मौत के नाटक में अंतर ना बता सके? कुछ वैज्ञानिक इसे शिकार करने के शौक के रूप में समझाते हैं तो कुछ मानते है कि जब अनेक शिकार हों तो शिकारी एक जानवर की मृत्यु की सच्चाई परखने में समय व्यर्थ नही करना चाहता। जब एक परीक्षक ने मृत प्रतीत होगनोज़ को पलट के सीधा किया तो उसने फिर से पेट के बल पलट कर अपने जीवित होने का सबूत दे दिया।
हालांकि ये मृत्यु का आवरण अभी छोटे जानवरों में ही देखा गया है पर ये कई प्रजातियों और जीवों में पाया जाता है। छोटी चिड़ियाँओं, साँपों, मछलियों और कीड़ों, सभी में किसी ना किसी रूप में यह पृवत्ति पाई गई है। होगनोज़ नामाक प्रजाति का साँप अपने भक्षक को देख अपने पेट के बल पलट जाता है और मुँह खोल कर खून की बूँदे टपकाने लगता है। यहाँ तक ये साँप सड़ाँध वाली गंध भी छोड़ता है जो कि शिकारी जानवर के खाने के मज़ा खराब कर देती है। इन सबके बावज़ूद जीववैज्ञानिकों ने पाया कि साँप अपने आसपास के वातावरण से भिज्ञ है और नजरें पलटते से ही हिलने लगता है।
शायद यही जीवजगत की विविधता है कि इतना नाटक करने वाला साँप बुद्धि से थोड़ा कमजोर है। जब एक परीक्षक ने मृत प्रतीत होगनोज़ को पलट के सीधा किया तो उसने फिर से पेट के बल पलट कर अपने जीवित होने का सबूत दे दिया। शायद उसके दिमाग में मरने का नाटक मतलब पेट के बल पलट कर स्थिर हो जाना भरा था, स्थिर बने रहना नही। पर यूरोप के घाँस के मैदानों में पाये जाने वाले साँप इस मामले में ज्यादा समझदार हैं। उनको जब पलटा गया तो भी वे नही हिले।
क्या यह व्यवहार जानवर के जीन्स में होता है? क्या ये उन्हें जीवित रहने में मदद करता है? क्या मौत का नाटक हमेशा मौत से बचने के लिये ही किया जाता है? वैज्ञानिक कई प्रश्नों के साथ इस पृवत्ति को समझने की कोशिश कर रहें है परंतु जीवों के प्रति अन्याय के विरूद्ध नियम-कायदे कुछ महत्वपूर्ण प्रयोग करने के रास्ते में बाधा बन जाते हैं। वर्षों पुराने प्रयोगों से, जब इन कानूनो का जन्म नही हुआ था, वैज्ञानिको ने ये लगभग निश्कर्ष निकाला है कि वास्तव में ये पृवत्ति जीन्स में पायी जाती है और कुछ हद तक शिकारी जानवर के पंजे में आने के बाद जीवित होने की संभावना में वृद्धि करती है। जब एक बिल्ली के पिंजरे में क्विल नामक चिड़ियाँयें छोड़ी गयी तो देखा गया की जैसे ही एक चिड़िया मरने का नाटक करती है बिल्ली उसे छोड़कर दूसरी चिड़िया के पीछे भागने लगती है।
पर यह नही कि मृत शरीर हमेशा शिकार से बचने के ही काम आता है क्योंकि शिकार को तैयार भोजन में मजा नही। जापानी जीवविज्ञानिकों ने एक प्रयोग में मकड़ियों, कीड़ो और मेंढ़कों को टिड्डे खाने के लिये दिये। कथित रूप से जानवरों के प्रति अन्याय के विरोध के नियम कीड़ों पर नहीं लागू होते। इनमे से सिर्फ मेंढ़क ही टिड्डे को निगल कर खाता है और इसी अवस्था में वैज्ञानिको नें देखा कि टिड्डा मेंढ़क के मुँह में जाकर अपने शरीर को अकड़ लेता है। क्यों? कारण यह कि यद्यपि टिड्डा पहले ही अपने भक्षक के मुँह में है, अकड़ने से उसके उगलने में कठनाई और इसीलिये जीवित रहने की संभावना दोनो बढ़ जाई है।
समुद्र की एक मछली की प्रजाति मृत ढोंग बिल्कुल उल्टे कारणों से रचती है। पंद्रह-बीस मिनट तक मृत मछली अपने आस-पास की छोटी मछलियों की हिम्मत बढ़ा देती है यहाँ तक कि छोटी मछलियाँ निश्चल मछली के शरीर को कुतरना तक चालू कर देती है। और फिर मौका देखते से ही मरने का नाटक कर रही मछली जाग उठती है और एक दबोचे में ही...।
है ना दुनिया गजब की?
(संपूर्ण जानकारी विज्ञान समाचार के इस लेख से ली गई है।)
Saturday, November 4, 2006
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