Thursday, August 31, 2006

पायलट कॉकपिट के बाहर फँसा

क्या ऐसा संभव है कि मौत सामने खड़ी हो पर आप हँसी रोक ना सकें? शायद ऐसी ही कुछ अवस्था हुई होगी एयर कनाडा के ओट्टावा से विनिपेग जाते यात्रियों के साथ जब मंजिल से बीस मिनिट शेष रहते उनके पालयट जी को "गाना गाने" की जरूरत पड़ी। "काम" तो सीधा सा ही था पर काम के बाद बीच हवा में कॉकपिट का दरवाजा बंद हो गया। मतलब कि कॉकपिट में उपपायलट और एक परिचारिका तो थे पर दरवाजा ना जाने कैसे फँस गया। पायलट साहब दस मिनिट तक दरवाजा ठोकते रहे पर केबिन का दरवाजा टस से मस ना हुआ। अंत में यात्रियों की मदद से दरवाजे को ही हिंजों से ही हटाया गया और सभी ने चैन की साँस ली।

गौरतलब है कि उपपायलट हवाईजहाज उतार सकता था तो मौत का सीधा खतरा तो नही था। पर अगर कॉकपिट के दरवाजे को बाहर से ही खोला जा सकता हो तो फिर आतंकवादी क्या करेंगे? खैर ऐसी भी बात नही क्योंकि बाहर से तभी खोला जब अंदर से भी खुला था, पर यदि ऐसा था तो क्या पायलट दरवाजा खुला रख के बाहर जाता है? बहुत 'कंन्फ़्यूज़न' है भैया!

(समाचार, साभार)

Wednesday, August 30, 2006

मूर्खता के नियम

हमेशा ही, बिना अपवाद के, किसी भी समूह में कोई मूर्खों की संख्या कम ही आंकता है।

यह है बर्कले (Berkeley) स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (University of California) में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर कार्लो किपोला (Carlo M. Cipolla) द्वारा मानवीय मूर्खता पर अध्यन कर बनाये गये नियमों में से पहला मूल सिद्धांत। [कड़ी साभार]

कोई आइंस्टाईन भी क्यों ना हो, उसने कभी ना कभी तो मूर्खता की ही है। कहा जाता है कि प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री आईज़क न्यूटन ने भी अपने घर के दरवाजे पर अपनी बिल्ली और उसके बच्चों के लिये एक बड़ा और कई छोटे छेद कर रखे थे ताकि वो अंदर-बाहर आ-जा सकें। हम चाहें ना चाहें मूर्खता इंसान की पृवत्ति है, यद्यपि अधिकतर लोगों के लिये ये हँसी या थोड़ी तकलीफ का साधन होती है, इनकी तरह कुछ लोग मूर्खता की मिसाल कायम कर देते हैं। और सभी जानते हैं कि दुनिया की सारी गलतियाँ सिवाय आपके अन्य "स्टुपिड" लोगों के महत्वपूर्ण औहदों पर होने से ही होती है, हैं ना?

मुर्खता के पहले नियम के अनुसार आप कभी भी मूर्खों की संख्या सही आंक ही नही सकता क्योंकि कहीं ना कहीं कोई ना कोई तो ऐसा निकल ही जायेगा जो आपके अनुमान से बड़कर अपनी मूर्खता से आपको चौंका ही देगा। मुर्खता का दूसरा नियम इस प्रश्न को जवाब देता है कि क्या कुछ समूह अन्य समूहों से कम मूर्ख होते हैं। यानि कि:
किसी व्यक्ति के मूर्ख होने की संभावना उस व्यक्ति की किसी अन्य पृवत्ति से पूर्वतः स्वतंत्र होती है।

अर्थात नोबेल पुरस्कार विजेता और देहाती दोनो के मूर्ख होने की संभावना समान होती है। मुर्खता का तीसरा नियम मूर्ख व्यक्ति को पारिभाषित करता हुआ कहता है कि:
मूर्ख वह है जो कि किसी वस्तु, व्यक्ति या समूह को नुकसान पहुँचाता है, जबकि उसे खुद कोई फायदा नही होता, बल्कि शायद नुकसान ही होता है।

इसी कारण आप किसी के मूर्ख व्यवहार को कभी समझ ही नही सकते। सिर्फ अपने बाल नोचने के ये सोचना समझदार व्यक्तियों के लिये असंभव हो जाता कि कथित मूर्ख ऐसा कर ही क्यों रहा है। और चूँकि मूर्ख बिना लाभ के आपको नुकसान पहुँचाता है, अधिकतर अनजाने में, उनसे बचना भी मुश्किल होता है क्योंकि आप पहले से सोच ही नही सकते कि कोई ऐसी हरकत भी करेगा। प्रो. कार्लो उस व्यक्ति जो आपका और खुद का नुकसान करता है और उस व्यक्ति जो खुद का नुकसान कर आपका फायदा करता है में अंतर बताते हुऐ चौथा मौलिक नियम बताते है:
अमूर्ख व्यक्ति मूर्खों से होने वाले नुकसान का अंदाज़ नही लगा पाते और हमेशा भूल जाते हैं कि किसी भी समय, अवसर और परिक्षेप में मूर्खो से जुड़ना नुकसान के सिवाय कुछ नही लाता।

मूर्ख बिना लाभ के नुकसान पहुँचाता है, उनसे बचना भी मुश्किल होता हैपाँचवा और अंतिम मूर्खता का नियम मूर्खता के सामाजिक प्रभाव के बारे में कहता है कि:
एक मूर्ख व्यक्ति दुनिया में सबसे ज्यादा खतरनाक होता है।

चूँकि पहले नियमानुसार समस्त समूहों में मूर्खों की संख्या समान होती है, एक विकसित और पतित समुदाय में अंतर सिर्फ यह है कि मूर्खों को कितनी शक्तिशाली स्तरों पर बिठा रखा है। है ना मजेदार विश्लेषण?

Saturday, August 26, 2006

डाकुओं की लूट का बँटवारा

अर्थशास्त्र की प्रमेयों और सिद्धांतों में अर्थव्यवस्था के खेल में लगे प्रत्येक खिलाड़ी - चाहे वह आम आदमी, संस्था, व्यापार संगठन अथवा सरकार हो - को तर्कसंगत (rational) अस्तित्व माना जाता है। इसके अनुसार कोई भी सत्ता अपने किसी भी निर्णय को अपने सम्मुख उपलब्ध समस्त विकल्पों के बारें में समस्त जानकारी के साथ पूर्णतः अपने स्वार्थ से ही लेगी। इस पूर्वानुमान में व्यक्ति की भावनावों को भी एक भार दिया जा सकता है और निःस्वार्थ कार्य करने के सुख को स्वार्थ की खुशी के लिये किया गया कार्य माना जा सकता है। अंततः किसी भी व्यक्ति के किसी भी निर्णय को उसके द्वारा सभी उपलब्ध विकल्पों की सीमा में अपनी उपयोगिता सर्वाधिक करने के प्रयास का हल माना जा सकता है। और अगर हम जरा गौर फरमायें तो ये कथन लगभग सर्वदा सत्य ही प्रतीत होता है।

लेकिन हमारे दिन-प्रतिदिन की कुछ घटनायें हमें मनुष्य की तर्करहित मानसिकता से सामना कराती हैं। कई शोधों द्वारा यह सिद्ध हुआ किया गया है कि अभी १०० रूपये लेने और एक साल बाद ५०० रूपयें लेने के विकल्प प्रस्तुत करने पर असंगत संख्या मे लोग पहला वाला, यद्यपि तर्करहित, विकल्प चुनते हैं। इसका कारण यह है कि इंसान की भावनायें और मनोविज्ञान को अभी तक ढंग से समझा नही गया है। और इस स्थिती में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं जो सामान्य समझ से बाहर होती हैं और गणित चरमरा जाता है, क्योंकि फिर ऐसी अवस्था में भविष्य में व्यवहार का अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है।

उदाहरणतः एक प्रसिद्ध समुद्री डाकुयों की लूट की समस्या (pirates' problem) ही लीजिये। मानें कि ५ बहुत खूनी, लालची, बेदर्दी, तर्कसंगत और लोकतांत्रिक डाकुओं के पास सोने की १०० मोहरें हैं जिन्हें आपस में बाँटना है। डाकू आपस में सब बराबर हैं सिवाय इसके की उनमे कैसे भी एक श्रेष्ठता क्रम है - मान लीजिये की उम्र के अनुसार। लूट बाँटने का सीधा तरीका है - सबसे ज्येष्ठ डाकू एक बँटवारा प्रस्तावित करेगा और सारे डाकू उसके पक्ष और विपक्ष में वोट देंगे। अगर आधा या आधे से ज्यादा वोट मिलते हैं तो बँटवारा मंजूर होगा अन्यथा ज्येष्ठ डाकू को मार दिया जायेगा और बाकियों में से ज्येष्ठ पुनः इसी क्रिया को दोहरायेगा। निश्चित ही कोई मरना नही चाहता और सर्वाधिक धन पाना चाहता है। आप चाहें तो इस जगह रुक कर हल सोचने का प्रयत्न कर सकते हैं।

हल के लिये हमें यह ध्यान देना है कि एक डाकू मरते ही यह N डाकुओं की बजाय N-1 डाकुओं की समस्या बन जाती है। इसके हल को भी उलटा चालू करते हैं २ से और फिर ५ तक पहुँचते हैं। तो २ डाकुओं में श्रेष्ठ डाकू सारी अशर्फियाँ स्वयं को प्रस्तावित कर सकता है और खुद के वोट से प्रस्ताव मंजूर भी करा सकता है और दूसरे को कुछ भी नही मिलेगा। ३ डाकुओं के होने पर श्रेष्ठतम को सिर्फ निम्नतम डाकू को एक अशर्फी का लालच देना है और खुद के लिये ९९ रख सकता है। फिर खुद के और निम्नतम डाकू के वोट से वह २ के मुकाबले १ से जीत जायेगा। यह समझना जरूरी है कि तीसरा इस प्रस्ताव से सहमत होगा क्योंकि वह अगर नही होता तो पहला मारा जायेगा और फिर दो डाकुओं में उसे कुछ भी नही मिलेगा। तर्क की दृष्टि से यह तीसरे डाकू के लिये सर्वश्रेष्ठ सौदा है। यदि इसी तरह चार डाकुओं के बारे में सोचें तो श्रेष्ठतम से निम्नतम क्रमशः ९९, ०, १, ० मोहरों का बँटवारा सर्वोत्तम होगा और पाँच डाकुओं के लिये ९८, ०, १, ०, १ का बँटवारा। हम खेल को अगणित डाकुओं तक बढ़ा सकते है, हालाँकि २०० के बाद - सिवाय कुछ विशेष संख्याओं के - कुछ डाकू तो मरेंगें ही कैसा भी प्रस्ताव रखा जाये।

चूँकि यह सर्वश्रेष्ठ हल है इस समस्या का, हम यह आशा कर सकते हैं कि वे डाकू ऐसा ही करेंगे। लेकिन वास्तविक जिंदगी में ऐसा हुआ तो क्या अनुमान है आपका? सहज ही हम जानते हैं ऐसा नही होगा। तीन डाकुओं के खेल में तीसरा वाला एक मोहर के प्रस्ताव को कभी पारित नही करेगा क्योंकि उसके अनुसार एक मोहर और शून्य मोहर में ज्यादा अंतर नही और ऐसे प्रस्ताव को रखने वाले को मार कर बदला लेना ज्यादा उचित होगा। और ज्येष्ठ डाकू अगर मनोविज्ञान को जरा भी समझता होगा तो एक से ज्यादा ही प्रस्तावित करेगा निम्नतम डाकू का वोट लेने के लिये। मामला कितने पर निपटता है यह तो दोनो पर निर्भर करता है, पर परेशानी हमारे सामने यह है कि जब तर्कसंगत हल से हट कर करने पर तीसरे डाकू को ज्यादा लाभ होता है तो फिर पहले वाला हल तर्कसंगत कैसे हुआ? तर्क-अतर्क की परिभाषा क्या विज्ञान और दर्शनशास्त्र के विकास द्वारा सीमित है या फिर कुछ ऐसा है जिसका हम अनुमान भी नही लगा पा रहें है?

Wednesday, August 23, 2006

ऐसा भी एक नाच

देखिये ये मजेदार वीडीयो: कसरत की ट्रेडमिल पर नाच!



घर पे बिना डॉक्टर की उपस्थिती के प्रयास ना करें!

चींटी और टिड्डे की कहानी

बहुत पहले की बात है...

चींटी तमतमाती गर्मी में काम करती रहती, घर बनाती, खाना इकट्ठा करती। टिड्डा सोचता चींटी मूर्ख है, वो उसका मजाक बनाता और सारी गर्मी नाचता-गाता मस्ती से गुजारता। जब सर्दी आई तो चींटी अपने घर में आराम से सुरक्षित और गर्म रहती और खूब खाती। दूसरी और टिड्डा ना खाना ढूँढ पाता ना जगह और ठंड के मारे मर जाता।

फिर समय बदला। धरती पे इंसान आये, सभ्यता आई, समाज जन्मा, लोकतंत्र आया, और...

चींटी तमतमाती गर्मी में काम करती रहती, घर बनाती, खाना इकट्ठा करती। टिड्डा सोचता चींटी मूर्ख है, वो उसका मजाक बनाता और सारी गर्मी नाचता-गाता मस्ती से गुजारता।

जब सर्दी आई तो कंपकंपाते टिड्डे नें एक पत्रकार-सम्मेलन बुलाया और सबको दिखाया कि क्यों ऐसा अन्याय सहा जाये कि चींटी तो अपने घर में आराम से बैठे और खाये और बाकी लोग सर्दी से मरें? एन. डी. टी. वी., आज तक, बी. बी. सी. सभी ने कांपते-ठिठुरते टिड्डे के बगल में आराम से रहती चींटी के चित्र दिखाये। इंडिया टी. वी. ने चींटी के खिलाफ आंदोलन छेड़ने के लिये सभी से एस. एम. एस. भेजने को कहा और सी.एन.एन. ने इस विषय पर जनता की राय जानने के लिये दिल्ली में घूम कर अखिल-भारतीय सर्वेक्षण करा। सारी दुनियाँ भौंचक्की रह गई संपन्नता के विभाजन से। सारे चिठ्ठों पर बहस छिड़ गई कि ऐसा अपमान कैसे सहा जा सकता है, क्यों बिचारा टिड्डा इतना दुख सहे?

अरूंधती राय ने चींटी के घर के सामने धरना डाल दिया। राजनीतिक पार्टीयाँ सड़को पे निकल आई और बसें और दुकाने फूँकने लगी। विद्यार्थी आत्मदाह की धमकी देने लगे। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन और कोफी अन्नान नें टिड्डे के जीवन के मूलाधिकारों का हनन होने पर भारत सरकार को डाँट लगाई। तीन दिन लोक सभा भंग रही और विपक्ष वालों गृहमंत्री के इस्तीफे की माँग करी। वामदलों ने पश्चिम बंगाल और केरला में भारत बंध की घोषणा करी और उच्चस्तरीय न्यायिक जाँच की माँग की। अंतर्जाल पे टिड्डे के अधिकारों की रक्षा के लिये निवेदनों की भीड़ लग गई।

अंत में जाँच समिती टिड्डे के विरुद्ध आतंक के विरोध में एक कानून बनाती है जिसे सर्दी के शुरू से लागू किया जाता है। चींटी को इस कानून के तहत जेल भेज दिया जाता है और उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाती है। प्रधानमंत्री चींटी का घर एक भव्य समारोह में सारे टी.वी. और अखबारों के सामने टिड्डे को भेंट कर देते हैं।

अरूंधती राय इसे न्याय की जीत बताती है, पत्रकार टिड्डे इंटर्व्यू लेने के लिये लाईन लगा लेते हैं, इंडिया टी.वी. वाले बधाई के एस.एम.एस. मँगवाते है और कोफी अन्नान टिड्डे को संयुक्त राष्ट्र की सभा संबोधित करने का निमंत्रण देता है।

Friday, August 18, 2006

सामाजिक विकास की दिशा कितनी हमारे हाथों में

ये मन का मंथन है, विचारों का प्रवाह है, सोच की दिशा है...किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा हूँ...

हम इंसान, समाज, राष्ट्र और विश्व के रूप मे प्रतिदिन अपने लिये एक राह चुनते हैं, एक दिशा बनाते हैं, एक प्रयास करते है उस मार्ग की और जिस तरफ हम सब जाना चाहते हैं। यद्यपि हमें यह प्रतीत होता है कि मानवता विकास के विपरीत जा रही है, पर यह तो विकास की परिभाषा पर निर्भर करता है ना? प्रगति या पतन - जाने या अनजाने, समझे या बिना समझे, सहमति से या बल पूर्वक हम एक निर्णय लेते हैं जो हमारा भविष्य बनाता है। सर्वसंभव अपने अनुसार उपलब्ध ज्ञान और विश्लेषण के अनुसार हम उज्जवल भविष्य की कामना करते हुये एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प चुनते हैं। एक कदम और सही। पर उन्ही कदमों पर चलते-चलते क्या हम उस मंजिल की और बढ़ रहे हैं जो हमें स्वीकार नही? वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार लिये गये निर्णय क्यों हमें उस मार्ग की और ढकेलते हैं जिसकी मंजिल पर हम पहुँचना शायद नही चाहते? विकल्प भी क्या है: क्या सर्वश्रेष्ठ निर्णय लेना छोड़ दे, अगर हाँ तो फिर कैसे दिशा चुनें; या मंजिल को नियती मान कर स्वीकार कर लें?

विकास के कई मापन हैं और क्या मानवता के रूप में हम अभी पचास वर्षों पहले से ज्यादा सुखी हैं पर बहस अंतहीन। पर मैं विकास को ऐसे पारिभाषित करना चाहता हूँ: क्या आप पचास वर्ष पुरानी दुनिया में रहना पसंद करेंगे आज की बजाय? क्या हमारे पूर्वज उस समय की बजाय आज के समय में रहना पसंद करेंगें? यदि उत्तर "हाँ" में है तो हम पचास वर्ष पूर्व की तुलना में विकसित हैं। इस प्रविष्टी में विकास शब्द इसी अर्थ में उपयोग किया जायेगा। संसार के समस्त राष्ट्र इस पैमाने से विकास के अलग-अलग पगार पर खड़े हैं और इस लेख में उदाहरण विभिन्न देशों से दियें जायेंगे।

अमेरिका और यूरोप में पूँजीवाद (capitalism) का प्रभुत्व है। पूँजिवाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थक है। भारत में भी इस विचार के समर्थकों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, हालाँकि सामाजिक दायरे अभी भी जनता की स्वीकृत लिये हुए हैं। आजकल अमेरिका में समलैंगिक (homosexual) लोग विवाह की माँग कर रहें है और भारत में पहिचान की। बीस वर्ष पहले ये सोचना भी असंभव था पर आज ये सच्चाई है। और सभी बुद्धिजन इन माँगो का समर्थन करते हैं। नीदरलैंड, बेल्जियम, स्पेन, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा में समलैंगिक विवाह कानूनन है। समय के साथ ही भारत में जहाँ एक समय में परजाति विवाह की कल्पना भी नही की जा सकती थी वहाँ आज धर्मांतर विवाह सामान्य हैं या कुछ समय में हो जायेंगे। पचास सालों पहले अमेरिका में श्वेत और अश्वेत के बीच मिलाप अशोचनीय था और आज की स्थिती से हम सभी परिचित हैं। क्या यह कल्पना करना कि अगले सौ सालों में मानव और पशु का विवाह भी कानूनन हो जाये सपना होगा? यदि हम यहाँ दिये गये उदाहरणों पर नजर डालें तो ये असभ्य विचार भी असंभव नही लगता। एक-एक कदम सही राह पर चलते चलते हम उस मंजिल की और बढ़ रहें जो शायद हम नही चाहते...या कौन जाने शायद तब तक चाहने लगेंगे?

व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्षपाती मानते हैं कि जब तक कोई किसी का नुकसान नही कर रहा हो तब तक समाज या सरकार को उसके खिलाफ नियम नही बनाने चाहिये। पर कभी यही नीति हमें ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करती है जिसके लिये हमारे पास कोई जवाब नही होता। दिसंबर २००२ में एक व्यक्ति नें अंतर्जाल के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को मारकर खाने (cannibalism) की इच्छा व्यक्त की और मरने के लिये स्वयंसेवक माँगे। एक अन्य व्यक्ति तैयार गया और पहले ने दूसरे को सहमति से मारकर खा लिया। हालाँकि अदालत ने पहले को हत्या की सजा सुनाई, मामले की उपस्थिती ने हमारे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विचार को ठेस पहुँचाई और कई प्रश्न उठाये। अभी तो ये एक विचित्र घटना मान के भूल सकते हैं पर ये बहुत संभव है कि इसी तरह के प्रश्न समाज के सामने बार-बार आएंगे आगे।

एक समय वैश्यावृत्ति समाज का अभिशाप कही जाती थी। कई जगह अभी भी यह स्थिती है पर जर्मनी, स्विटजरलैंड, ग्रीस, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और नीदरलैंड में यह कानूनन भी है। लोगों का नज़रिया भी परिवर्तित हो रहा है और वैश्याओं को नागरिक मानकर समाज की मुख्यधारा में लाने के प्रयास हैं। कुछ देशों में टी.वी. पर यौन सेवाओं का विज्ञापन दिखाना सामान्य बात है। सहिष्णुता और समता द्वारा दिशानिर्दिष्ट इन नीतियों ने समाज को उस दिशा में धकेल दिया है जहाँ जाना शायद उसका उद्देश्य नही था।

नीदरलैंड में बाल व्याभिचारी (pedophile) नागरिकों ने एक राजनैतिक पार्टी बना ली है जो कि यौन संबंध के लिये न्य़ूनतम आयु कम करना चाहती है तथा इस अपराध के लिये सजा कम करनें की पक्षधर है। इतने खुले समाज में भी ये सूचना नीदरलैंड के लोगों के लिये शर्मनाक है। पर समाचार की उपस्थिती ही एक नये युग की शुरूआत के चिन्ह हैं।

भारत सरकार के वन्य जीवों, विशेषकर शेर और चीते के, संरक्षण में असफल रहने पर कुछ लोग शेरों के समूह उत्पाद के विचार को प्रस्तावित कर रहें है जैसे अभी गाय-बकरियों का होता है। उनका तर्क है कि इस तरह चोरी से होने वाले शेरों के शारिरिक अंगो के व्यापार को कानून का जामा पहनाकर लोगों को शेर संरक्षित करने को उत्साहित किया जा सकता है। हो सकता है ये तरीका सही हो और एक जाति लुप्त होने से बच जाये, पर क्या हम हर जानवर को अपने वातावरण से निकाल कर सिर्फ खरीद-फरोख्त का सामान मानना चाहतें हैं, जबकि हम जानते हैं कि फैक्ट्रियों में होने वाले पशु पालन में कितनी क्रूरता होती है?

ये सभी समाचार मुझे सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या हम जिस दिशा की और बढ़ रहें वो सही है? पर हल भी तो समझ में नही आता क्योंकि अभी जो कर रहें हैं वह भी तो अपने हिसाब से सही कर रहें हैं। इसी से जुड़ा एक प्रश्न जिसका उत्तर मुझे आज तक नही मिला वो ये है कि क्या विकास की एक ही दिशा होती है? यदि हम यूरोप और अमेरिकन देशों को एशियन और अफ्रीकन देशों से विकसित मानें तो क्या ये संभव है कि सौ वर्ष के बाद जब विकासशील देश विकसित होंगे वे अभी के विकसित देशों से अलग हों? या फिर यह जरूरी है कि हम विकसित देशों के ऐतिहासिक पथ पर पीछे-पीछे चलते जाएं और उसी जगह पहुँचे जहाँ आज वो हैं? आजकल जो हो रहा है उस से ऐसा लगता है कि हमारी संस्कृति, राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य अमेरिका के मार्ग पर ही जा रहें हैं और हमारा विकास उनके विकास के रास्ते पर चल रहा है, मंजिल भी वही होगी फिर। निश्चित ही विकास के मापन - सभी को समता, सुख, सुरक्षा, आदि - समान हैं तो विकास के रास्ते में थोड़ा मिलाप संभव है, पर क्या कोई अलग रास्ता हो ही नही सकता? चीन और जापान जो कि भारत समान संस्कृति से अमेरिका समान संस्कृति की अग्रसर हैं वे तो यही बताते हैं कि विकास का मार्ग एक ही है।

इसका मतलब हम विकसित होकर भी उन्हीं समस्याओं - जैसे नैतिक पतन, लालच, व्यवसायीकरण, अकेलापन, स्वार्थ - में फँस जायेंगे जिनसे आज ये देश जूझ रहें है? उनसे बच के विकसित होना संभच नही क्या?

अदालत के कटघरे से

अदालत के कटघरे से चुटपुटियाँ - सच्ची या झूँठी - हँसी तो हँसी.....

प्र: आपका जन्मदिन कब है?
उ: तीस दिसंबर।
प्र: किस वर्ष?
उ: हर वर्ष।

प्र: ये जो दवाई आप लेते हैं, क्या ये आपकी याद्दाश्त को प्रभावित करती है?
उ: हाँ।
प्र: किस तरह से प्रभावित करती है?
उ: मैं भूल जाता हूँ।
प्र: आप भूल जाते हैं। क्या आप कोई उदाहरण दे सकते हैं जिसे आप भूल गयें हों?

प्र: आपके साथ जो बेटा रहता है, वो कितने साल का है?
उ: पैंतीस या अड़तीस, मुझे पक्का याद नही रहा।
प्र: और वो आपके साथ कितने समय से रह रहा है?
उ: पैंतालीस साल से।

प्र: आपके पति जब सुबह उठे तो पहली बात क्या बोली?
उ: उन्होने कहा, "मैं कहाँ हूँ, कैथी?"
प्र: फिर आपको बुरा क्यों लगा?
उ: क्योंकि मेरा नाम सुज़ान है।

प्र: और वह दुर्घटना कहाँ हुई?
उ: लगभग ४९९वें मील के पत्थर के पार।
प्र: और मील का पत्थर ४९९ कहाँ है?
उ: शायद मील के पत्थर ४९८ और ५०० के बीच में।

प्र: तो क्या आपने अपनी गाड़ी का होर्न बजाया कि नही?
उ: दुर्घटना के बाद?
प्र: नही, पहले?
उ: बिल्कुल। मैं पिछले दस सालों से गाड़ी चला रहा हूँ और होर्न बजाता रहा हूँ।

प्र: तो डॉक्टर, क्या यह सही नही है कि जब एक आदमी अपनी नींद में मर जाता है तो उसे अगली सुबह तक यह पता नही चलता कि वो मर गया है?

प्र: जब आपकी तस्वीर ली गई थी तो क्या आप वहाँ उपस्थित थे?

प्र: तो बच्चे के गर्भादान की तारीख आठ अगस्त थी?
उ: जी हाँ।
प्र: और आप उस समय क्या कर रहीं थी?

प्र: उसके तीन बच्चे थे, है ना?
उ: हाँ।
प्र: कितने लड़के थे?
उ: एक भी नही।
प्र: क्या कोई लड़की भी थी?

प्र: आप कहते हैं कि सीढ़ीयाँ तहखाने तक नीचे गयी थी?
उ: जी।
प्र: और क्या यही सीढ़ीयाँ ऊपर तक भी गई थी?

प्र: आपकी पहली शादी किस कारण से समाप्त हुई?
उ: मृत्यु के कारण।
प्र: और किसकी मृत्यु के कारण?

प्र: क्या आप व्यक्ति का हुलिया बता सकते हैं?
उ: वो मध्यम ऊँचाई का था और दाड़ी वाला था।
प्र: क्या वह आदमी था या औरत?

प्र: डॉक्टर, आपने कितने पोस्ट-मॉर्टम मृत लोगों पर किये हैं?
उ: मेरे सारे पोस्ट-मॉर्टम मृत लोगों पर ही होते हैं।

प्र: आपके सारे जवाब मुँह से ही होने चाहिये, ठीक? आप किस स्कूल गये थे?
उ: मुँह से।

प्र: क्या आप समय बता सकते हैं जब आपने शरीर का परीक्षण किया?
उ: शव का पोस्ट-मॉर्टम साढ़े आठ बजे चालू हो गया था।
प्र: और श्री राजकुमार उस समय मर चुके थे?
उ: नही, वो मेरी टेबल पर बैठे सोच रहे थे कि मैं उनका पोस्ट-मॉर्टम क्यों कर रहा हूँ।

प्र: डॉक्टर सा'ब, जब आपने पोस्ट-मॉर्टम चालू किया तो आपने नब्ज़ की जाँच की?
उ: नही।
प्र: क्या आपने रक्त दाब की जाँच की।
उ: वो भी नही।
प्र: क्या आपने साँस की पड़ताल की?
उ: नही।
प्र: तो श्रीमान, क्या यह संभव नही कि मरीज जिंदा हो जब आपने पोस्ट-मॉर्टम चालू किया?
उ: नही है।
प्र: आप इतना यकीन से कैसे कह सकते हैं, डॉक्टर?
उ: क्योंकि उसका दिमाग मेरी टेबल पर निकला पड़ा था।
प्र: पर फिर भी मरीज जिंदा तो हो सकता है ना?
उ: हाँ हो सकता है कि वो जिंदा हो और कहीं पर वकालत कर रहा हो।

(चुटकुले साभार, अनुवाद मेरा)

Thursday, August 17, 2006

आतंकवाद पर कुछ टिप्पणियाँ

आतंकवाद कोई नई खबर नही है। आतंकवाद को रोकने के प्रयासों के द्वारा होने वाली तकलीफे भी अब ज्यादा नई नही हैं। फिर भी जब किसी को हवाई अड्डे पे कड़ी जाँच से गुजरना पड़ता है और इसकी वजह से असुविधा होती है तो तुरंत बोल देता है कि 'इस तरह ही तो आतंकी जीतते हैं'। लोगों का कहना है कि हम आपस में विश्वास करना भूल जाएं, डर-डर कर जियें और परेशानी महसूस करें, यही तो आतंकी चाहते हैं। मुझे ये समझ में नही आता है कि कहाँ से इन लोगों को खयाल आ जाता है कि यही आतंकी चाहते हैं? आतंकी अपने राजनैतिक अथवा धार्मिक कारणों से उन्माद करते हैं और किसी के डरने से उनका मकसद पूरा नही हो जाता। मेरा ये नही कहना कि इंसान को डर कर जीना चाहिये पर जो जायज़ डर है उसके लिये सुरक्षा का उपाय करने में क्या बुराई है? बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि डर से तब तक डरना चाहिये जब तक वो सामने ना हो, जब सामने हो डर भूल कर लड़ना चाहिये। जो लोग आतंकवाद के रोकने के प्रयासों में कड़ी सुरक्षा और असुविधाजनिक नियमों को आतंकवादियों की जीत बताते हैं वो ये क्यों भूल जाते कि अगले हमलें मरने वाले निर्दोष लोगों की जान बचा कर हम आतंकियों को हरा रहें है, ना कि जिता रहें। क्या कुछ बार की असुविधा किसी की जान से ज्यादा प्रिय है?

इसी से जुड़ा एक विषय कई भारतीयों के मन में घृणा और हीनता उतपन्न कर देता है, और वो है हवाईजहाज यात्रा के दौरान, वीज़ा देने के समय, रेलवे में, आदि भूरें लोगों की सामान्य से अधिक जाँच-पड़ताल (racial profiling)। लोग इसे अपना अपमान मान बैठते हैं या यह मान लेते हैं कि सरकार किसी समुदाय विशेष को कुछ चरमपंथियों की हरकतों के लिये दोषी मानती है। मैं भी भूरा हूँ पर मेरी तार्किक समझ में तो ये बात आज तक नही आई। समझदारी मुझे कहती है कि यदि ये संभावना है कि किसी रंग, धर्म, समुदाय या वर्ग के लोग आतंकवादी ज्यादा होते हैं तो उनको रोकने के लिये उस रंग, धर्म, समुदाय या वर्ग के लोगों को विशेष रूप से क्यों ना जाँचा जाये? सांख्यिकी में इसे स्ट्रेटीफाईड सेंपल (stratified sampling) बोलते हैं। और ये तो तथ्य है कि एक समुदाय दूसरें समुदायों की अपेक्षा अधिक जिम्मेदार है, इतिहास इसका गवाह है, उसमें सच-झूँठ, विश्वास-अविश्वास क्या करेगा? तथ्य बदले थोड़े ही जा सकते हैं यदि पसंद नही आएं भी तो। और जब मेरे साथ हवाईजहाज पर ऐसा होता है तो मुझे कोई आफत नही, बल्कि प्रसन्नता होती है। क्योंकि अगर वो मुझ पर शक कर रहें है तो मेरे जैसे दिखने वालों पर भी शक करेंगे, और फिर चूँकि आतंकियों की मेरे जैसे दिखने की संभावना अधिक है तो फिर उनको पकड़ने की संभावना भी अधिक है। अगर पकड़े गये तो किसकी जान बचेगी? मेरी ही ना। भाई मुझे तो अपनी जान की खातिर हवाई यात्रा से पहले कड़ी जाँच किसी भी दिन मंजूर।

सी एन एन - आई बी एन और हिन्दु ने मिलकर एक सर्वेक्षण करवाया और बताया कि भारतीय आतंकवाद से नही डरते। तो किससे डरतें है? चोरी-चकारी और साम्प्रदायिक दंगो से। और इसका निष्कर्ष निकाला गया कि आतंकवाद अभी बड़ी समस्या नही और सरकार जो भी कर रही है ठीक है। जैसा कि नितिन जी ने लिखा ये तो वही हो गया कि आदमी जुकाम से ज्यादा डरता है बजाय दिल के दौरे तो तो दिल का दौरा गंभीर समस्या नही है। और भी बहुत पोल खोली है, जा कर पढ़िये। सिर्फ एक बात, यद्यपि आशानुरूप, बहुत खली, और वो ये है। आप अपने निष्कर्ष स्वतः निकालिये।

Hindu Poll

Wednesday, August 16, 2006

ये कौन चित्रकार है

हरी-हरी वसुंधरा...
नीला-नीला ये गगन... - २

हरी-हरी वसुंधरा पे नीला-नीला ये गगन
कि जिसपे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन
दिशाऐं देखो रंग भरीऽऽऽ
दिशाऐं देखी रंग भरी, चमक रहीं उमंग भरी
ये किसने फूल-फूल पेऽऽऽ
ये किसने फूल-फूल पे किया सिंगार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
(कोरस) ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार

तपस्वियों सी हैं अटल ये पर्वतों की चोटियाँ
ये सर्प सी घुमेरदार घेरदार घाटियाँ
ध्वजा से ये खड़े हुऐऽऽऽ
ध्वजा से ये खड़े हुऐ, हैं वृक्ष देवदार के
गलीचे ये गुलाब के, बगीचे ये बहार के
ये किस कवि की कल्पनाऽऽऽ
ये किस कवि की कल्पना का चमत्कार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
(कोरस) ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार

कुदरत की इस पवित्रता को तुम निहार लो
इसके गुणों को अपने मन में तुम उतार लो
चमका लो आज लालिमाऽऽऽ
चमका लो आज लालिमा अपने ललाट की
कण-कण से झाँकती तुम्हें छवि विराट की
अपनी तो आँख एक हैऽऽऽ
अपनी तो आँख एक है उसकी हज़ार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
(कोरस) ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार


Yeh Kaun Chitrakar...


१९६७ की फिल्म "बूँद जो बन जाये मोती" का ये मनोरम गीत मुकेश की आवाज़ में यहाँ से डाऊनलोड कीजीए।

Tuesday, August 15, 2006

हम भारत के लोग

India vividity

सर्वसाधारण को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाईयाँ।

हिन्दी चिठ्ठा जगत में कई लोगो ने अपनी बधाई और राष्ट्र के नाम संदेश दिया, और मैं यही सोचता रहा कि ऐसा क्या लिखूँ अपने चिठ्ठे पे जो कि पहले नही लिखा गया और मेरी बधाई भी ताजी रहे। इसीलिये प्रस्तुत है ये तस्वीर जो मैने अपने महाविद्यालय में (अमेरिका में) अंतर्राष्ट्रीय मेले में भारतीय बूथ के सामने लगाई थी और भारत को चंद तस्वीरों में समेटने की कशिश की थी।

चलते चलते, आज के दिन इन उज्वल शब्दों को याद कर लेना उचित होगा -

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रबुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये, तथा उसके समस्त नागरिको को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिन न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये,
तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिये दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवंबर, १९४९ ई० (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत्‌ दो हजार छह विक्रमी) को एतद्‍द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। [सूत्र]

Monday, August 14, 2006

कलाकार और उसकी कला

...के बीच में कभी लड़ाई हो तो कैसी होगी? शायद ऐसी होगी| डाऊनलोड यहाँ से करें| (कड़ी साभार)

चतुरायामी चलचित्र: एक अनुभव

जब से चलचित्रों का व्यवसायिक स्तर पर निर्माण शुरू हुआ, आज तक फिल्मों और चलचित्रों की तकनीकी में खासा परिवर्तन आया है। समय, अनुभव और विज्ञान नें इस कला और कला के प्रदर्शन में कई मील के पत्थर पार किये हैं। किंतु अभी तक भी - जबकि तकनीकी ज्ञान उपलब्ध है - चलचित्र द्विआयामी (2-D) पर्दे पर ही दिखाये जाते हैं। डिजिटल तकनीक के उपयोग से चित्रों और आवाज की गुणवत्ता में निस्संदेह सुधार हुआ है और हो रहा है, लेकिन चित्र अभी भी द्वियामी पर्दे पर ही त्रिआमी (3-D) वास्तविकता का आभास देने का प्रयास करते हैं।

फिर त्रियामी चलचित्रों की एक नई तकनीक आई जिसमें दो चित्रों को आंशिक रूप से एक-दूसरे के ऊपर रखा हुआ पर्दे पर प्रदर्शित किया जाता है और विशेष चश्में से दोनो को मिला कर गहराई का अनुभव होता है - जैसा कि हमारी आँखे करती है। मेरी सबसे पहली त्रियामी फिल्म "छोटा चेतन" नामक थी जो लगभग १९९५ में देखी थी। अनुभव निश्चित ही रोमांचक था।

अमेरिका में आने के बाद आई-मेक्स (I-Max) तकनीक से भी दो-चार फिल्में देखी जो कि द्वियामी ही होती है पर पर्दा इतना बड़ा होता है कि हमारे दृष्टिक्षेत्र का कोई भी हिस्सा खाली नही रहता - पर्दे की सीमायें देखने के विस्तार से बाहर होती हैं - और ऐसा महसूस होता है दर्शक भी फिल्म के दृश्यों की बीच में विराजमान है। हैरी पोट्टर की तीसरी फिल्म आई-मेक्स में त्रियामी तकनीक से देखी और अनुभव ने एक और सीमा पार की।

पर पिछले महीनों में जब यूनिवर्सल स्टूडियो हॉलिवुड (Universal Studio Hollywood) और सी-वर्ल्ड सेन-डिएगो (Sea-World San Diego) गया तो पहली बार चतुरायामी चलचित्रों (4-D) का अनुभव हुया। चतुरायामी चलचित्रों में त्रियामी चित्रों को पर्दे पर दिखाया जाता है पर आँख और कान की ज्ञानेन्द्रियों के अलावा स्पर्श और गंध की ज्ञानेन्द्रियों की भी आवश्यकता पूरी की जाती है। विशेष रूप से बनाई गयी सीटें और फर्श के कंपन, ढलाव, और हलचल से दर्शक भी फिल्म के किरदारों की तरह पर्दे की हलचल (जैसे भूकंप, गाड़ी, झटका,...) महसूस करते हैं। कुर्सी की पीठ, पैरों के पास नीचे, सामने वाली कुर्सी के पीछे, छत पर सामने लगे विशेष यंत्र समयानुसार हवा और पानी का झौंका आपकी तरफ फैकते है। कमरे में लगे हुये तंत्र फिल्म के अनुसार सुगंध, दुर्गंध, बारूद इत्यादि की गंध से कमरे को भर देते हैं। कुल मिलाकर दर्शक फिल्म के बाहर बैठकर नही बल्कि फिल्म के अंदर बैठकर किरदारों के साथ घटनाओं का अनुभव लेते हैं।

चूँकि ये अनुभव चतुरायामी अनुभव के लिये बनाई गयी विशेष फिल्मों के साथ हुये, उनमें जानकर ही उन क्रियाओं की अधिकता थी जिनको उपलब्ध चतुरायामी तकनीक से प्रभावित किया जा सके। अगर हम कुछेक वर्षों के विकास के बाद मान लें कि स्वाद प्रभावित करने का भी यंत्र बन जाये तो? यह कल्पना करने में ज्यादा बुद्धि नही चाहिये कि इस तकनीक को सभी फिल्मों में भी आराम से लगाया जा सकता है। और यदि चतुरायामी चलचित्रों को आई-मेक्स से मिला लिया जाये तो शायद जन्नत की सी अनुभुति होती होगी! और चूँकि ये अब तक नही हुआ है, प्रश्न है कि क्या लागत ही मुख्य अवरोध है, या फिर कुछ ऐसा है जिससे दो-तीन घंटो वाली फिल्मों में चतुरायामी तकनीक से होने वाली ज्ञानेन्द्रियों की अभिभूतता हमें खटकेगी? क्या दर्शकों की चैतना चलचित्रों के तकनीकी विकास की दिशा में बाधा हो सकती है?

Saturday, August 12, 2006

कोमा जो मात दे गया

लिखने में वर्तनी और व्याकरण की गलतियों से शायद ही कोई बचा हो, किंतु हम में से किसी नें इनके लिये परीक्षा में २-४ अंको के अलावा ज्यादा नही खोया है। कनाडा की एक कंपनी रोज़र्स कम्मुनिकेशन (Rogers Communications) इतनी भाग्यशाली नही थी, जिसने एक कोमा की गलती की सजा २१.३ लाख डॉलर देकर चुकाई!



हुआ यूँ कि रोज़र्स नें एलिऐंट (Aliant) से एक सेवा का पंच-वर्षीय समझौता किया २००२ में - एलिऐंट को रोज़र्स के संचार तारों को सारे खंबों से बाँधना था और उनकी मरम्मत करनी थी $९.६० प्रति खंबे की दर से। समझौते की शर्तो के अनुसार समझौता पाँच साल तक लागू रहेगा, और उसके बाद अगले पाँच साल के लिये बढ़ाया जा सकता है जबकि दोनो में से कोई भी कंपनी एक वर्षीय सूचना देकर समझौता नही तोड़ती है। सीधी सी बात, नही? पर इस वाक्य को समझौते के लेखाकारों ने ऐसे लिखा:


The agreement “shall continue in force for a period of five years from the date it is made, and thereafter for successive five year terms, unless and until terminated by one year prior notice in writing by either party.”



और यहीं रोज़र्स मात खा गया। दूसरे कोमा को (unless के पहले) देखिये। इसकी अनुपस्थिती में समझौता रद्द करना २००७ के बाद ही संभव था; इसकी उपस्थिती में पहलें पाँच सालों में भी एक-वर्षीय सूचना के साथ रद्द करना जायज़ है। एलिऐंट के तेज वकीलों ने इस पंक्ति को पकड़ा और साल भर पहले सेवा देना बंद करने की सूचना दे दी। और काम की कीमते बढ़ा दी। बेचारे रोज़र्स के वकील खिसिया रहे हैं। ये तो फिर भी एक उद्यम को हुआ जिसके लिये २१ लाख शायद ज्यादा मायने नही रखता पर फिर भी...अब व्याकरण को नई दृष्टि से देख रहा हूँ!



कड़ी साभार, पूर्ण समाचर

http://www.futilitycloset.com/2015/07/08/law-and-punctuation/

Friday, August 11, 2006

गर्भावस्था - सवाल और जवाब

प्र: क्या मैं पैंतीस के बाद बच्चे पैदा कर सकती हूँ?
उ: नही, पैंतीस बच्चे बहुत हैं।

प्र: गर्भावस्था में सबसे ज्यादा किस चीज की इच्छा होती है?
उ: कि काश औरतों की बजाय आदमी गर्भवती होते।

प्र: बच्चे के लिंग जानने के लिये सबसे अच्छा तरीका क्या है?
उ: बच्चे का जन्म।

प्र: जैसे-जैसे मेरी गर्भावस्था बढ़ती है, ज्यादा-ज्यादा अनजाने लोग मुझे देखकर मुस्कुराते हैं। क्यों?
उ: क्योंकि आप उनसे भी ज्यादा मोटी हैं।

प्र: मेरी पत्‍नी पाँच महीने से गर्भवती है, और इतनी मूडी (moody) है कि कभी वो पागल तक हो जाती है।
उ: तो प्रश्‍न क्या है?

प्र: मेरे बच्चों के डॉक्टर ने बताया कि जन्म के दौरान मैं दर्द नही दबाव महसूस करती हूँ। क्या वो सही है?
उ: हाँ, उसी तरह जिस तरह तूफान को हवा का झौंका भी कहा जा सकता है।

प्र: क्या ऐसी कोई चीज है जिससे मुझे बचना चाहिये बच्चे के जन्म के बाद?
उ: हाँ, दूसरी गर्भावस्था।

प्र: हमारा बच्चा पिछले सप्ताह पैदा हुआ। मेरी पत्‍नी कब सामान्य महसूस होना और बर्ताव करना शुरू कर देगी?
उ: जब बच्चें कॉलेज में जा चुके हों।

Thursday, August 10, 2006

चित्रों में यूनिवर्सल स्टूडियो हॉलीवुड

entrance

कुछ सप्ताह पहले मैं (दायाँ) और मेरे मित्र अंकुश (मध्य) और रवि (बायाँ) लॉस-एन्जेल्स (Los Angeles) स्थित यूनिवर्सल स्टूडियो (Universal Studio Hollywood) गये थे। अमेरिका के प्रसिद्ध चलचित्र निर्माण उद्यम यूनिवर्सल स्टूडियो की फिल्मों के आधार पर बना यह पार्क कई खेल-खिलोने समेटे हुये है। साथ ही कई असली के सेट और सामाग्री भी हैं जिन्हें कई प्रसिद्ध फिल्मों में उपयोग किया गया है। ऊपर के चित्र में हम मुख्य द्वार पर बैठे हैं और हर देसी की तरह एक "गया था-देखा था" (been there, done that) वाला चित्र खिंचवा लिया! फिर हम "जुरासिक पार्क" के सेट के आधार पर बनी नौका यात्रा पर गये।

jurassic park

अगले चित्र में हम छलांग लगाने वाली नाव की यात्रा के बाद बाहर खड़े हैं।

boat jump

"ममी" फिल्म के आधार पर एक रॉलर-कॉस्टर झूला भी बड़ा मजेदार था हांलाकि सिक्स-फ़्लैग्स (Six Flags) जैसे पार्कों के मुकाबले बहुत ही कम रोंमांचक था।

mummy ride

रास्तें मे डॉनाल्ड-डक, मिकी माऊस और भी पता नही कौन-कौन से चरित्र ऊटपटांग नाच रहे थे - और आश्चर्य की बात कि छोटे बच्चें इनके भी हस्ताक्षर ले रहे थे!

donald duck

सब खेल निपटाकर यूनिवर्सल के पुराने सेटों पर गयें। नीचे दिये चित्र को ध्यान से देखिये - क्या कमाल की चीज है। मेरा चित्र पृष्ठभूमि से थोड़ा बड़ा है वरना इसको देखकर लगता नही कि ये बहुत छोटा सांचा है जिसे फिल्मों में दूर से दिखता जहाज बना दिया जाता है।

fake facade

पूरा का पूरा शहर बनाया हुआ है कई जगह बिना ईंट और सींमेंट के सिर्फ फ़ॉम से बिलकुल असली दिखने वाला। अगले चित्र में भी पृष्ठभूमी केवल एक बड़ा सा बॉर्ड है जो कि एक नजर में असली की पहाड़ी दिखती है (हांलाकि ये सेट का हिस्सा नही)।

hollywood sign

अंत मे चलते-चलते शाम की रंगीनी को कैमरे में कैद करता ये ग्लोब:

hollywood ball

अरे हाँ, रास्ते में ये डरावने वाले भाईसाहब भी मिले थे तो हमने सोचा इनको भी जरा निबटा ही देते है!

kick it


इस यात्रा के समस्त चित्र देखनें के लिये यहाँ क्लिक करें और मेरे अन्य चित्र देखने के लिये यहाँ पधारें

Wednesday, August 9, 2006

धागों का त्योहार

रक्षाबंधन के इस पावन पर्व पर सभी को बधाई एवं शुभकामनाऐं। व्यस्तता और पाश्चात्यीकरण की और अग्रसर हमारे इस समाज में जहाँ दीवाली के पटाखों की गूँज हल्की होती जा रही है, होली के रंग फ़ीके पड़ते जा रहें, एवं वैलेंटाईन डे करवाचौथ को पीछे धकेल रहा है, मेरी ये मनोकामना है कि राखी का सरल किंतु अपने रूप मे दुनिया में शायद अनोठा यह पवित्र त्योहार हमारे हृदय से ना रूठे।

इसी के साथ सुनिये रागा पर ये गीत और अपने भाई/बहन को याद कर लीजीये...

चित्र साभार: सर्च डॉट कॉम

Saturday, August 5, 2006

स्वर्ग या नर्क?

स्वर्ग वहाँ है जहाँ है आपके पास:

* अमेरिकन आमदनी
* ब्रितानी घर
* चीनी व्यंजन
* स्विट्जर्लेंड की अर्थव्यवस्था
* ईतालवी सेहत/शरीर
* जापानी तकनीकी
* अफ्रीकी औजार
* भारतीय पत्‍नी

नर्क वहाँ है जहाँ है आपके पास:

* अमेरिकन पत्‍नी
* ब्रितानी सेहत/शरीर
* चीनी औजार
* स्विट्जर्लेंड के व्यंजन
* ईतालवी तकनीकी
* जापानी घर
* अफ्रीकी अर्थव्यवस्था
* भारतीय आमदनी

Thursday, August 3, 2006

ठहाको का खज़ाना

पिछली प्रविष्टी के संदर्भ में मेरा अफ़वाह निर्देशिका (Urban Legend Reference Pages) पर जाना हुया। निर्देशिका लगभग सभी ई-मेल अग्रस्थ सच और झूठी खबरों और अफ़वाहों की सूची है, और उनके जन्म के बारे में यथासंभव जानकारी रखती है। ये समझ लीजीये कि ठहाकों का खज़ाना मिल गया। क्या-क्या लोग बनाते है कल्पना भी नही की जा सकती! उदाहरण के तौर पर देखिये अमेरिका में बच्चों के लिये सरकारी सहायता हेतु निवेदन पत्र की पंक्तियाँ, गरीबों द्वारा सरकारी सहायता हेतु निवेदन, महिला मित्र के तोहफा में अदला-बदली का असर, बोर होने पर सुपरस्टोर में मस्ती करने के नुस्खे, और भी बहुत कुछ! पढ़िये और कई दिनों तक मुस्कुराईये!

साथ ही कुछेक रोचक जानकारी भी है: माईक्रोवेव में पानी उबालने से मुसीबत, चीन की दीवार चाँद से नही दिखती, डाईहाईड्रोज़न-मोनोऑक्साईड के नुकसान, किस्मत का कमाल और बड़प्पन की मिसाल!

******

अन्य खबरों मे: टाईम्स के अनुसार नये अनुसंधानों द्वारा ये सिद्ध किया गया है कि सुंदर जोड़ों को लड़कियाँ होने की संभावना २५‍% तक अधिक होती है क्योंकि जीवों के विकास के दौरान सुंदरता स्त्री के लिये अच्छा वर ढूँढ़ने में सहायक रही है जबकि पुरूष को सुंदरता से कोई विशेष फायदा नही होता। अतः संबंधित जीनों का मानव में आधिपत्य हो गया है। (कड़ी साभार)

Tuesday, August 1, 2006

साबुन चाहिये श्रीमान?

चेतावनी: ऐसी जगह ना पढ़े जहाँ दिल खोलकर हँस ना सके!

आरोन्स-जोक्स से अनुवाद किया गया चुटकुला जहाँ यह शैली बर्मन (Shelly Berman) द्वारा लिखित "होटल एक मजेदार जगह" (A Hotel Is A Funny Place) से लिया गया:

------------------------------------------
प्रिय सेविका,

कृपया इन छोटे साबुनों की बट्टियों को मेरे स्नानागार में ना छोड़े क्योंकि मैं स्वयं का बड़ा सा साबुन लाया हूँ। कृपया दवाओं की अलमारी से नीचे की अलमारी में रखी छः और स्नानागार की साबुनदानी में रखी तीन बिना खुली बट्टियाँ हटा लें, वे मेरें काम करने के रास्ते में आ रहीं हैं।

धन्यवाद,
शैली बर्मन
------------------------------------------
प्रिय कमरा क्रमांक ६३५,

मैं आपकी रोजमर्रा की सेविका नही हूँ, वह तो अपनी छुट्टी के बाद से कल आयेगी। जैसा आपने कहा वैसे मैने तीन साबुन की बट्टियाँ साबुनदानी से हटा दी हैं। अलमारी में रखी हुई छ: बट्टियाँ मैने आपके रास्ते से हटाकर क्लीनेक्स के डब्बे के ऊपर रख दी गई है अगर आपके विचार बदलें तो। इसके बाद मैने जैसा कि मुझे प्रबंधन से निर्देश है उसके अनुसार तीन बट्टियाँ स्नानागार में रख दी गई हैं। आशा करती हूँ कि आप संतुष्ट होगें।

कैथी, अस्थाई सेविका
------------------------------------------
प्रिय सेविका - मैं आशा करता हूँ कि तुम मेरी नियत सेविका हो

लगता है कैथी ने तुम्हें साबुन की बट्टियों के बारे में मेरे पत्राचार के बारे में नहीं बताया। जब मैं आज शाम अपने कमरे पर लौटा तो पाया कि तुमने ३ कैमे मेरी दवाओं की अलमारी के नीचे वाली अलमारी में रख दिये हैं। मैं इस होटल में दो सप्ताह रुकने वाला हूँ और इसीलिये खुद का बड़ा सा साबुन भी लाया हूँ, अतः मुझे ये छः कैमे की बट्टियाँ नही चाहिये जो अलमारी में हैं। वे मेरे दाढ़ी बनाने और मंजन करने के रास्ते में पड़ती हैं, कृपया उनहे हटा लें।

शैली बर्मन
------------------------------------------
श्रीमान बर्मन जी,

सहायक प्रबंधक श्री केंसेडर ने मुझे सूचित किया कि आपने उनहें कल शाम को फोन करके बताया कि आप अपने कमरें में सेविका की सेवा से संतुष्ट नही हैं। अतः मैने एक नई लड़की आपके कमरे के लिये निर्युक्त की है। मेरी आशा है कि आप पिछली परेशानी को क्षमा कर देंगें। अगर और की समस्या होतो मुझे प्रातः ८ से सायं ५ तक ११०८ पर संपर्क करें।

धन्यवाद
ईलेन कार्मेन
सेवा प्रबंधक
------------------------------------------
प्रिय कार्मेन

आपको फोन से संपर्क करना मेरे लिये असंभव है क्योंकि मैं काम की वजह से होटल से प्रातः ७:४५ बजे निकल जाता हूँ और सायं ५:३० या ६:०० से पहले नही लौट पाता। इसी कारण मैनें श्री केंसेडर को फोन किया था। आप पहले ही घर जा चुकी थी। मैने श्री केंसेडर से सिर्फ यही पूछा था कि वो इन साबुन की बट्टियों के बारें में कुछ कर सकते हैं क्या? आपने जो नई सेविका भेजी है उसने सोचा होगा कि मैं आज ही होटल में नया आया हूँ क्योंकि वो स्नानागार में तीन साबुन के अलावा मेरी दवा की अलमारी में भी तीन बट्टियाँ रख गई है। केवल ५ दिनों में मैने साबुन की २४ छोटी बट्टियाँ इकठ्ठी कर ली हैं। आप मेरे साथ ऐसा क्यों कर रही है?

शैली बर्मन
------------------------------------------
श्रीमान बर्मन जी,

आपकी सेविका कैथी को यह निर्देश दे दिया गया है कि वो आपके कमरें में साबुन पहुँचाना बंद कर दे और अतिरिक्त साबुन को हटा दे। अगर और की समस्या होतो मुझे प्रातः ८ से सायं ५ तक ११०८ पर संपर्क करें।

धन्यवाद
ईलेन कार्मेन
सेवा प्रबंधक
------------------------------------------
श्री केंसेडर जी,

मेरा बड़ा वाला साबुन मिल नही रहा है। मेरे कमरे से साबुन की हर एक बट्टी हटा ली गई है, मेरे खुद के बड़े साबुन की भी। कल रात जब मैं आया तो मुझे चौकीदार को बुलाकर ४ छोटे काशमीरी बुके साबुन मगाँना पड़ा।

शैली बर्मन
------------------------------------------
श्री बर्मन जी,

मैने होटल की सेवा प्रबंधक ईलेन कार्मेन को आपकी साबुन की समस्या से अवगत करा दिया है। मुझे ये समझ में नही आता कि आपके कमरें में साबुन कैसे नही था क्योंकि हमारी सेविकाओं को रोज तीन बट्टियाँ छोड़ने का निर्देश है। आपकी स्थिती का जल्दी ही समाधान किया जायेगा। परेशानी के लिये मुझे क्षमा करें।

मार्टिन केंसेडर
सहायक प्रबंधक
------------------------------------------
प्रिय कार्मेन जी,

किस गधे ने मेरे कमरे में कैमे की ५४ छोती टिकियाऐं रखी? कल रात जो मैं जब आया तो ५४ साबुन की बट्टियाँ पाई। मुझे ५४ बट्टियाँ नही चाहिये। मुझे सिर्फ मेरा बड़ा वाला साबुन चाहिये। क्या आपको अहसास है कि मेरे पास ५४ साबुन की बट्टियाँ है? मुझे केवल मेरा वाला साबुन चाहिये। कृपया मेरा वाला साबुन दें दे।

शैली बर्मन
------------------------------------------
श्रीमान बर्मन,

पहले आपने अपने कमरे में बहुत ज्यादा साबुन की शिकायत की तो मैने उनहे हटवा दिया। फिर आपने श्री केंसेडर से शिकायत की आपके पास साबुन नही तो मैने खुद उन्हे लौटा दिया - २४ कैमे जो पहले हटाया था और तीन बट्टियाँ जो आपको रोज मिलनी चाहिये थी। मुझे ४ काशमीरी बुके के बारे में कुछ नही पता। निश्चित ही सेविका कैथी को ये पता नही था कि मैं आपके साबुन लौटा आई हूँ, अतः वह भी २४ कैमे और तीन रोज के हिस्से के साबुन रखा आई। मुझे ये पता नही कि आपको ये खयाल कहाँ से आ गया कि इस होटल में बड़ा वाला साबुन दिया जाता है। मुझे एक दूसरा बड़ा साबुन मिला जो मैं आपके कमरें में रख आई हूँ।

ईलेन कार्मेन
सेवा प्रबंधक
------------------------------------------
प्रिय कार्मेन जी,

मैने सोचा कि आपको मैं अपने साबुनों के खजाने के बारे में नई जानकारी दे दूँ। आज के दिन मिला कर मेरे पास है:

  • दवाईयों की अलमारी के नीचे वाली अलमारी में - ४ की ४ गड्डीयों और २ की १ गड्डी मे १८ कैमे
  • क्लीनेक्स के डब्बे पर - ४ की २ गड्डीयों और ३ की १ गड्डी मे ११ कैमे
  • शयनकक्ष के बगल में - ३ काशमीरी बुके १ गड्डी में, ४ होटल द्वारा दिये गये बड़े साबुन की १ गड्डी, और ४ की २ गड्डियों मे ८ कैमें
  • दवाई वाली अलमारी में - ४ की ३ गड्डियों मे और २ की १ गड्डी में १४ कैमे
  • स्नानागार की साबुनदानी में - ६ कैमे, बहुत गीले
  • टब के उत्तर-पूर्वी कोने पर - १ काशमीरी बुके, थोड़ा इस्तेमाल किया गया
  • टब के उत्तर-पश्चिमी कोने पर - ३ की २ गड्डियों में छ कैमे
कृपया कैथी से कहियेगा कि जब वो सफाई करे तो ध्यान रखे कि गड्डियाँ साफ-सुथरी हैं और जमीं हैं। उसे यह भी सलाह दीजीयेगा कि ४ से बड़ी गड्डियों की गिरने की संभावना होती है। क्या मैं आपको सलाह दे सकता हूँ कि मेरे शयनकक्ष की खिड़की की पट्टी की जगह अभी खाली है और भविष्य की साबुन रखने की अच्छी जगह साबित होगी। एक और बात, मैने अपने लिये एक और बड़ा वाल साबुन खरीद लिया है जिसे कि मैं होटल के लॉकर में रख रहा हूँ जिससे की आगे से कोई गलतफहमीं ना हो।

शैली बर्मन
------------------------------------------

इस पन्ने के अनुसार यह एक सच घटना नही है बल्कि बनाई हुई है। हाँलाकि इससे चुटकुले का मजा कम नही हो जाता!

Breaking the Bias – Lessons from Bayesian Statistical Perspective

Equitable and fair institutions are the foundation of modern democracies. Bias, as referring to “inclination or prejudice against one perso...