जब से चलचित्रों का व्यवसायिक स्तर पर निर्माण शुरू हुआ, आज तक फिल्मों और चलचित्रों की तकनीकी में खासा परिवर्तन आया है। समय, अनुभव और विज्ञान नें इस कला और कला के प्रदर्शन में कई मील के पत्थर पार किये हैं। किंतु अभी तक भी - जबकि तकनीकी ज्ञान उपलब्ध है - चलचित्र द्विआयामी (2-D) पर्दे पर ही दिखाये जाते हैं। डिजिटल तकनीक के उपयोग से चित्रों और आवाज की गुणवत्ता में निस्संदेह सुधार हुआ है और हो रहा है, लेकिन चित्र अभी भी द्वियामी पर्दे पर ही त्रिआमी (3-D) वास्तविकता का आभास देने का प्रयास करते हैं।
फिर त्रियामी चलचित्रों की एक नई तकनीक आई जिसमें दो चित्रों को आंशिक रूप से एक-दूसरे के ऊपर रखा हुआ पर्दे पर प्रदर्शित किया जाता है और विशेष चश्में से दोनो को मिला कर गहराई का अनुभव होता है - जैसा कि हमारी आँखे करती है। मेरी सबसे पहली त्रियामी फिल्म "छोटा चेतन" नामक थी जो लगभग १९९५ में देखी थी। अनुभव निश्चित ही रोमांचक था।
अमेरिका में आने के बाद आई-मेक्स (I-Max) तकनीक से भी दो-चार फिल्में देखी जो कि द्वियामी ही होती है पर पर्दा इतना बड़ा होता है कि हमारे दृष्टिक्षेत्र का कोई भी हिस्सा खाली नही रहता - पर्दे की सीमायें देखने के विस्तार से बाहर होती हैं - और ऐसा महसूस होता है दर्शक भी फिल्म के दृश्यों की बीच में विराजमान है। हैरी पोट्टर की तीसरी फिल्म आई-मेक्स में त्रियामी तकनीक से देखी और अनुभव ने एक और सीमा पार की।
पर पिछले महीनों में जब यूनिवर्सल स्टूडियो हॉलिवुड (Universal Studio Hollywood) और सी-वर्ल्ड सेन-डिएगो (Sea-World San Diego) गया तो पहली बार चतुरायामी चलचित्रों (4-D) का अनुभव हुया। चतुरायामी चलचित्रों में त्रियामी चित्रों को पर्दे पर दिखाया जाता है पर आँख और कान की ज्ञानेन्द्रियों के अलावा स्पर्श और गंध की ज्ञानेन्द्रियों की भी आवश्यकता पूरी की जाती है। विशेष रूप से बनाई गयी सीटें और फर्श के कंपन, ढलाव, और हलचल से दर्शक भी फिल्म के किरदारों की तरह पर्दे की हलचल (जैसे भूकंप, गाड़ी, झटका,...) महसूस करते हैं। कुर्सी की पीठ, पैरों के पास नीचे, सामने वाली कुर्सी के पीछे, छत पर सामने लगे विशेष यंत्र समयानुसार हवा और पानी का झौंका आपकी तरफ फैकते है। कमरे में लगे हुये तंत्र फिल्म के अनुसार सुगंध, दुर्गंध, बारूद इत्यादि की गंध से कमरे को भर देते हैं। कुल मिलाकर दर्शक फिल्म के बाहर बैठकर नही बल्कि फिल्म के अंदर बैठकर किरदारों के साथ घटनाओं का अनुभव लेते हैं।
चूँकि ये अनुभव चतुरायामी अनुभव के लिये बनाई गयी विशेष फिल्मों के साथ हुये, उनमें जानकर ही उन क्रियाओं की अधिकता थी जिनको उपलब्ध चतुरायामी तकनीक से प्रभावित किया जा सके। अगर हम कुछेक वर्षों के विकास के बाद मान लें कि स्वाद प्रभावित करने का भी यंत्र बन जाये तो? यह कल्पना करने में ज्यादा बुद्धि नही चाहिये कि इस तकनीक को सभी फिल्मों में भी आराम से लगाया जा सकता है। और यदि चतुरायामी चलचित्रों को आई-मेक्स से मिला लिया जाये तो शायद जन्नत की सी अनुभुति होती होगी! और चूँकि ये अब तक नही हुआ है, प्रश्न है कि क्या लागत ही मुख्य अवरोध है, या फिर कुछ ऐसा है जिससे दो-तीन घंटो वाली फिल्मों में चतुरायामी तकनीक से होने वाली ज्ञानेन्द्रियों की अभिभूतता हमें खटकेगी? क्या दर्शकों की चैतना चलचित्रों के तकनीकी विकास की दिशा में बाधा हो सकती है?
Book Review - Music of the Primes by Marcus du Sautoy (2003)
I can say, with some modesty, that I am familiar with the subject of mathematics more than an average person is. Despite that I hadn’t ever ...
-
One of the option on Orkut for describing your looks is "mirror cracking material". I always wondered if it's extreme on posi...
-
Most of you will be familiar with ‘ carbon trading ’ and attempt of various countries and organizations to become ‘ carbon neutral ’ by cert...
-
Following guidelines apply to how should you read this blog, and in general, how should you interpret what I say or write. I write in genera...