Friday, September 29, 2006

सजा पापी को या पापी के शरीर को?

कुछ दिनों पहले एक बहुत ही अच्छी अंग्रेजी डरावनी फिल्म देखी। "सालवेज़" (Salvage) नामक ये कम बज़ट की स्वतंत्र फिल्म मुझे अंग्रेजी की बेहतरीन डरावनी फिल्मों "द रिंग" (The Ring) और "द ब्लैर विच प्रोजेक्ट" (The Blair Witch Project) के समान ही रोमांचक और डरावनी लगी। कहानी एक लड़की की है जिसकी रोज हत्या होती है और जिसे डर-डर के जीना पड़ता है। आगे दो अनुच्छेदों में कहानी का भेद खोलने वाला हूँ सो चाहें तो इन्हें कूद जायें

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एक लड़की के घर में घुसकर एक सिलसिलेवार हत्यारा (सीरियल किलर) उसकी बर्बरता से चेहरा काट कर दर्द और दशहत के साथ हत्या कर देता है। परंतु दूसरे दिन लड़की फिर जिन्दा हो जाती है हालांकि उसे पिछले दिन की दशहत याद रहती है। वो समझ नही पाती है और ये सोचती है कि शायद वो बुरा सपना हो। परंतु दूसरे दिन भी उसका यही हाल होता है...और इसी तरह रोज। चूँकि लड़की हत्यारे को पहचानती है और अंजाम से वाकिफ है वो उससे बचने की कोशिश करती है पर किसी ना किसी तरह (लड़की के परिवार और मित्रों की मदद से) भी हत्यारा उसका उसी तरह खून करने में सफल हो जाता है। पुलिस को बताने पर पता चलता है कि उस हत्यारे को पुलिस ने कई दिनों पहले मार गिराया था और वे उसे लड़की का पागलपन समझते है। अखबारों की जाँच करने पर वो अपनी हत्या का समाचार पढ़ती है कई दिन पुराने पत्रों में।
कहानी के अंत के चंद मिनटो में बताया जाता है कि वो लड़की वास्तव में वो हत्यारा ही है जो अब नर्क में है और उसे अब अनंत तक अपने धरती पर किये कुकृत्यों का फल भोगना पड़ेगा उसी दरिंदगी से रोज गुजरकर जिस तरह उसने मासूम लड़की का कत्ल किया था। अच्छी भली दुनिया को नर्क और हैवानियत के भोगी को हैवान दर्शाना मेरे लिये अनापेक्षित, और इसी लिये रोमांचक, अंत था।

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ये तो रही फिल्म की बात, पर एक प्रश्न मेरे दिमाग में टिक गया। क्या उस व्यक्ति को सजा देना न्यायिक है जिसे बिल्कुल भी याद नही रहा कि उसने पाप किया है? मैं यह नही कह रहा कि अपराध अनजाने में हुआ पर जान-बूझ के किये गये अपराध के बाद यदि अपराधी किसी भी कारणवश भूल जाये कि उसने अपराध किया है - ये दूर की बात कि क्यों किया है - तो क्या उसे सजा देना सही है? उसे तो यही लगेगा कि उस मासूम को सजा दी जा रही है। क्या उसके शरीर को प्रताड़ना देना अपराध का नियत प्रतिशोध है? मैं उन तथाकथित मानवतावादी लोगो की बात नही कर रहा हूँ जो सिद्ध अपराधी को भी सजा ना देने की माँग करते है। पर जो लोग खूँखार अपराध के लिये कड़ी सजा के पक्ष में हैं वे लोग इस बारे में क्या विचार रखते हैं?

यदि अपराधी भूल जाये कि उसने अपराध किया है तो क्या उसे सजा देना सही है?मैं अपने आपको दूसरी श्रेणी में गिनता हूँ और किसी सिद्ध दोषी को इसलिये भी सजा देने के पक्ष में हूँ कि कम से कम भोगी के परिवार वालों को सांत्वना मिलेगी, भले ही इस सजा से भविष्य के अन्य अपराधियों की अपराध करने न करने की प्रवृत्ति में अंतर आये या ना आये। यानि कि मेरे लिये प्रतिरोध सिद्धांत (Deterrence theory) की असफलता न्यायिक प्रणाली को नर्म करने के पक्ष में तर्क नही है। क्योंकि फाँसी पर चढ़ने वाला कम से कम ये तो जानता है कि वो किस करनी का परिणाम भुगत रहा है। पर जब वो ही नही जाने तो फिर तो सजा की न्यायिकता समझ में नही आती। सरल हल होगा कि उसे सजा ना दी जाये। पर क्या वास्तविकता में बलात्कारी के पागल हो जाने पर उसके जघन्य कृत्य को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है? क्या याद्दाश्त की समाप्ति अपराधी की प्राकृतिक मृत्यु समान मान लेनी चाहिये?

Saturday, September 23, 2006

हिन्दी दिवस का रोना-धोना

कुछ दिनो पहले हिन्दी दिवस था। बचपन में ये दिन सिर्फ इसलिये याद आता था कि मैरे पापा, जो कि बैंक में काम करते हैं, को बैंक के आला अफसरों से ये फरमान आ जाता था कि हिन्दी में बैंक की कार्यवाही प्रोत्साहित की जाये। और हमेशा लगी हुई धूलसरित लकड़ी की पट्टियाँ को, जो की हिन्दी में घोषित करती हैं कि "यहाँ हिन्दी में लिखे और हस्ताक्षकर किये हुए चैक और फॉर्म स्वीवार किये जाते हैं", सालाना झाड़-पोंछ नसीब हो जाती थी। कभी-कबार हिन्दी की एक किताब भी बाँट दी जाती है। जब समझदारी बढ़ी तो हिन्दी दिवस पर कवियों को हिन्दी की दुर्गति गाते हुए भी सुना।कौन माँ चाहेगी कि उसकी कीर्ती के लिये उसकी संतान का हनन किया जाये?

मेरा परिवार सभी साधारण परिवारों की तरह हिन्दी से उतना ही करीब है जितना जरूरत है। ना कभी विशेष दर्जा दिया गया हिन्दी को ना ही अंग्रेजी को। जो बोलते हैं वही बिना सोचे बोल देते है। कुछ ऐसे ही विचारों और व्यक्तिगत सोच ने गत कुछ वर्षों से हिन्दी के प्रति मेरे विशेषाभाव को बढ़ने-घटने ना दिया। मेरा यह मतलब नही कि मुझे हिन्दी पसंद नही, मेरा मतलब है कि कभी हिन्दी को लुप्त होती भाषा की तरह सोचा नही। और शायद इसी कारण मुझे हिन्दी दिवस और हिन्दी के घटते उपयोग पर विशेष सुख या दुःख नही होता।

ना ही मेरा इस चिठ्ठे को लिखने के प्रति उद्देश्य है मेरा हिन्दी प्रेम। मुझे हिन्दी लिपि और भाषा अच्छी लगती और बोलने/लिखने में शर्म नही सो लिखता हूँ। नारद द्वारा पाठको की प्रस्तुति भी एक कारण है। पर फिर भी जिसे जो अच्छा लगे वो बोले मुझे उसमें भी आपत्ति नही। ना ही अपनी तरफ से किसी पर हिन्दी थोपने का पक्षपाती हूँ ना ही हिन्दी छोड़ने का। समय के साथ भाषा का जैसा विकास होगा देखा जायेगा। चूँकि हिन्दी मेरी मातृभाषा है इसलिये इसपर मेरी पकड़ अन्य भाषाओं से बेहतर है और बस यही कारण है कि इसका उपयोग जारी है।

मैं भाषा के स्वतः विकास का समर्थक हूँ। अगर किसी समय हिन्दी की बजाय अन्य भाषा प्रचलित हो जाती है तो जबरजस्ती हिन्दी पढ़ाने का ना मैं शौकीन हूँ ना यह कारगर तरीका है। भाषा विचारों का माध्यम है और कुछ नही (कम से कम सामान्य लोगों के लिये तो)। मेरे महाविद्यालय में एक समूह संस्कृत भाषा के विस्तार में कटिबद्ध था और गावों में स्थानीय तमिल की जगह संस्कृत का उपयोग प्रचलित करने के प्रयास करता था। मुझे उनके प्रयास समय और साधनो की व्यर्थतता ही लगे। भारतीय भाषायें मूलतः संस्कृत की संतति हैं। कौन माँ चाहेगी कि उसकी कीर्ती के लिये उसकी संतान का हनन किया जाये?

ये तो रही हिन्दी की दुर्गति की मेरा नज़रिया। पर मेरे अनुसार धरातल पर हालात इतने बिगड़े नही जितने बताये जाते हैं। हाँ लोग हिन्दी की बजाय अंग्रेजी में शिक्षा ग्रहण कर रहें है पर क्या वे हिन्दी भूल रहे हैं? नवपीढ़ी की नवभाषा अगर कुछ चिन्ह है तो उत्तर होगा नही। पर वे हिन्दी को बदल जरूर रहे हैं। अंग्रेजी, मराठी, पंजाबी, तमिल, आदि भाषाऐं हिन्दी से मिलकर नही हिन्दी बना रही है। जैसा कि पहले उर्दु और फ़ारसी ने किया था। हमे यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ४०% निरक्षर भारत अभी भी हिन्दी (या स्थानीय भाषा) बोलता सुनता है। साक्षर जन का बड़ा हिस्सा हिन्दी में पढ़ता भी है।

क्या हिन्दी लुप्त हो जायेगी? शायद, पर सौ सालों तक तो नही। अगर हो भी जाये तो क्या इतिहास को दबोचे रहना उचित होगा? क्या हिन्दी परिवर्तित हो जायेगी? निश्चित ही। प्रति क्षण हिन्दी बदल रही। पर यही तो भाषा की परिपक्वता और विकास है। उससे क्या डरना? फिर क्यों हिन्दी दिवस मनाना या हिन्दी की घटती लोकप्रियता पर रोना?

Friday, September 8, 2006

देशी चीते की दहाड़

भारतीय ब्रांड इक्विटी (brand equity) संस्था द्वारा विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिये जारी किया गया विडीयो:



हालांकि भारत-चीन की ऐसी खबरें तो खासी आम हैं और विडीयो भी कुछ नया नही दिखाता है पर बनाया अच्छा है। कुछ ऐसा ही नीचे वाला भी विडीयो भी है। ये ए. बी. सी. न्यूज़ वालों ने बनाया था और थोड़ा सामान्य है पहले की तुलना में।

Thursday, September 7, 2006

भगवान के नाम पर मत दो

शायद आपको ये पहले से ही पता हो कि कई भिखारी भीख माँग के इतना पैसा बना लेते हैं कि शान की जिंदगी जीते हैं। बंबई के समाचार पत्र मिड-डे में छपी खबर के अनुसार जब कुछ स्वयं-सेवी संस्थानों ने भिखारिओं को नौकरी की पेशकश की तो कईयों ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। कारण? जो व्यक्ति भीख माँगकर दैनिक सैकड़ों कमाता हो वो क्यों चंद हजारों के लिये महिना भर मेहनत करेगा?

बचपन में सुना करते थे ऐसे भिखारिओं के बारें में जो दुपहिया वाहन में स्तरीय कपड़े पहन के भीख माँगने जाते हैं और वहाँ जाकर अपना हुलिया दयनीय बना लेते हैं। प्रसिद्ध मंदिरों/मस्जिदों के बाहर और विदेशी पर्यटकों के विचरण स्थान पर कुछ इलाकों में काम करने वाले भिक्षुक भी कई मध्यम या निम्न-मध्यम वर्गीय मेहनतकारों से अधिक संपन्न होते है। और ऐसे इलाके इनके विवाह में दहेज मे लिये-दिये भी जाते है और गुन्डागर्दी से छीने भी।

ये भिखारी हमें भीख देने से मिलने वाली शांति और दूसरों का भला कर परलोक में अपना स्थान पक्का करने का टिकट बेचते हैं।ऐसा निश्चित ही है कि सभी भिखारियों की हालत ऐसी नही। हम सर्दी-गर्मी और भूख से मरने वालों की खबर भी आये-बगाहे सुनते ही रहते हैं। पर कितने भिखारी काम की अनुपस्थिती में भीख माँगते हौ और कितने काम से जी चुराने के लिये इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। विशेषकर महानगरों में दूसरी श्रेणी के याचकों की संभावना ज्यादा प्रतीत होती है। यद्यपि मैं यूँ भी भीख देने पक्षधर नही नही हूँ, उन लोगों को अपनी मेहनत के पैसे देना जो काम नही करना चाहते और भी कड़वा लगता है।

एक पक्ष यह भी उठाया जा सकता है कि भिखारी भीख नहीं माँगते बल्कि उसी प्रकार उद्यम करते हैं जैसे ऊटपटाँग वस्तुओं के विक्रेता, झूठ बोलकर सामान बेचने वाली कंपनी के प्रबंधक, नीम-हकीम इत्यादि करते हैं। ये भिखारी हमें भीख देने से मिलने वाली शांति और दूसरों का भला कर परलोक में अपना स्थान पक्का करने का टिकट बेचते हैं। काम भले ही गलत हो पर क्या हमने किसी चपल विक्रेता से ऐसी वस्तु नही खरीदी जिसका कोई उपयोग नही था?

ये नई बात नही कि कुछ लोग हमारी इंसानियत का फायदा उठाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं, नयी बात यह है कि जो भीख की जिंदगी त्यागकर मेहनत करके सम्मान की जिंदगी जीते है हमे उनका आदर करना चाहिये। अब जब भी किसी नौकर, चौकीदार, कामवाली या ठेलेवाले को देखूँगा तो ये याद रखूँगा कि ये शायद कम पगार में ज्यादा मेहनत का काम सिर्फ इसीलिये कर रहे हैं कि उन्हें इज्जत मिले, और वो इज्जत देना मेरी भी जिम्मेदारी है।

देश हमें देता है सबकुछ

अगर वंदे-मातरम्‌ की "ओवर-डोज़" नही हुई हो तो ये वाला भी सुन लीजीये! वंदे-मातरम् पॉप संगीत:

कभी खुशी कभी गम

वंदे मातरम्‌ के ऐतिहासिक विकास के इच्छुक ये लेख पढ़ सकते हैं। और इस पन्ने पर अलग-अलग स्त्रोतों से वंदे-मातरम्‌ की कड़ियाँ दी गयी हैं। वंदे-मातरम्‌ गीतगान के साथ ही उसके असली अर्थ को समझना भी हमारा कर्तव्य है क्योंकि:

देश हमे देता है सबकुछ - २
हम भी तो कुछ देना सीखें - २ ॥२॥

सूरज हमें रोशनी देता
हवा नया जीवन देती है ॥२॥
भूख मिटाने को हम सबकी
धरती पर होती खेती है ॥२॥
औरों का भी हित हो जिसमें - २
हम ऐसा भी कुछ करना सीखें -२

देश हमे देता है सबकुछ - २
हम भी तो कुछ देना सीखें - २

पथिकों को तपती दोपहर में
पेड़ सदा देते हैं छाया ॥२॥
सुमन सुगंध सदा देते हैं
हम सबकों फूलों की माला ॥२॥
त्यागी तरूणों के जीवन से - २
हम परहित कुछ करना सीखें - २

देश हमे देता है सबकुछ - २
हम भी तो कुछ देना सीखें - २

जो अनपढ़ हैं उन्हें पढ़ाऐं
जो चुप हैं उनको वाणी दें ॥२॥
पिछड़ गयें जो उन्हें बढ़ाऐं
प्यासी धरती को पानी दें ॥२॥
हम मेहनत के दीप जलाकर - २
नया ऊजाला करना सीखें - २

देश हमे देता है सबकुछ - २
हम भी तो कुछ देना सीखें - २


Desh Hame Deta He ...


(ये गीत यहाँ से से डाऊनलोड करें)

Wednesday, September 6, 2006

छोटी सी बात

Cute picture of child

मैं तुम्हारे पाँव पकड़ता हूँ...मेरा दिमाग मत खाओ

Tuesday, September 5, 2006

दैनिक जागरण ने बाजी मारी, भास्कर दूसरे स्थान पर

राष्ट्रीय पाठक अध्यन समिति (National Readership Studies Council) ने राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण (National Readership Survey, NRS) २००६ के मुख्य बिन्दू प्रस्तुत किये हैं जिनमें से कुछ रोचक तथ्य:


  • शहरी और ग्रामीण इलाको में पाठकों की संख्या लगभग बराबर - क्रमशः ४५% व १९% जनसंख्या में पैंठ

  • साक्षरता में हल्की सी बड़ोतरी - १.२ शुद्ध प्रतिशत[]

  • रेडिओ माध्यम में सर्वाधिक वृद्धि - ४ शुद्ध प्रतिशत

  • नियमित सिनेमा जाने वाले व्यक्तिओं की संख्या में तीव्र कमी (यद्यपि शहरों मे बढ़ोतरी) - पिछले वर्षों की तरह

  • मोबाईल उपकरणों में विशेष शुल्कयुक्त सुविधाओं के उपयोग में वृद्धि - १.६ शुद्ध प्रतिशत

  • अंतर्जाल उपयोगकर्ताओं की संख्या में नियमित वृद्धि परंतु ग्रामीण भारत पिछड़ा

  • भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में तीव्र बढ़ोतरी, अंग्रेजी भाषी पाठक आधार स्थिर

  • दैनिक जागरण २.१२ करोड़ और दैनिक भास्कर २.१ करोड़ के साथ दौड़ मे आगे

  • टाईम्स ऑफ़ इंडिया ७४ लाख, द हिन्दु ४० लाख, व हिन्दुस्तान टाईम्स ३८ लाख के साथ अंग्रेजी भाषी दौड़ में आगे

  • हिन्दी पत्रिकाओं में सरस-सरिल और ग्रहशोभा ७१ व ३८ लाख पाठक संख्या के साथ क्रमशः पहले और दूसरे स्थान पर


५ करोड़ सुविधा संपन्न हिन्दीभाषी कोई पत्र-पत्रिका नही पढ़ते - क्यों?
३५ करोड़ साक्षर लोग कोई पत्र-पत्रिका नही पढ़ते - कौन जिम्मेदार? समय, पैसा, विषय वस्तु या आदत?

कुल मिलाकर हल्की सी उन्नति पर ज्यादा खुशी की बात नही।
(समस्त सांख्यिकी उपरोक्त लेख की मेरी व्याख्या पर आधारित, ऋटि क्षमा)

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[]↑ यदि १०० में से किसी संख्या की वृद्धि २० से ३० होती है तो वृद्धि (३०*१००/१००)-(२०*१००/१००)=१० शुद्ध प्रतिशत होती है। सामान्य प्रतिशत के माप में ये वृद्धि ((३०-२०)*१००)/२०=५० प्रतिशत है। किसी को सरल नाम अथवा वर्णन आये तो बताईयेगा।

Sunday, September 3, 2006

चंदामामा दूर के - बालसाहित्य की यादें

बातों-बातों में पता ही नही चला कि इस जुलाई को चंदामामा पत्रिका ने साठ वर्ष पूरे कर लिये हैं। रीडिफ़ पे पत्रिका के संस्थापन और समय के साथ हुए परिवर्तनों पर अच्छा लेख हैउस समय शायद तीन या पाँच रूपये की आती है थी चंपक, और बिना नागा पापा हर पखवाड़े ला देते थे।

बचपन की किताबें सभी को ही बहुत प्रिय होती हैं क्योंकि उन किताबों के साथ उन दिनों की यादें, भावनाऐं, कल्पनाऐं और उत्साह जुड़ा रहता है। फिर मुझे तो शुरू से ही पढ़ने का जरूरत से ज्यादा ही शौक था और अभी भी बरकरार है। शुरूआत चंपक से हुई थी शायद। उससे पहले किसी पुस्तक का नाम यादों के धुंधलके में नही आता। उस समय शायद तीन या पाँच रूपये की आती है थी चंपक, और बिना नागा पापा हर पखवाड़े ला देते थे। अभी भी चंपको के ढेर दिमाग के किसी कोने से झलक पड़ते हैं। फिर नन्हें सम्राट आई, दस बरस का रहा होंऊगा तब। धीरे-धीरे चीकू खरगोश और मीकू बंदर की कहानिओं से बोर हो गया तो फिर बालहंस और नंदन जैसी पत्रिकाओं ने जीवन में प्रवेश किया। नंदन बहुत बेकार लगती थी, हर बार वही राजा-रानी-ऋषी की कहानी, नन्हें सम्राट विशेष प्रिय थी जेम्स बॉन्ड के कारण! उसी वर्ष मैं एक छोटे से गाँव से हटकर ग्वालियर (मध्य प्रदेश) रहने लगा पापा के स्थानांतरण के कारण। ग्वालियर में पहली बार, और शायद आखिरी बार, मेरा सरकारी पुस्तकालय से परिचय हुआ। मानो की खज़ाना मिल गया।

ट्विंकल और अन्य नियमित पत्रिकाओं से वहीं परिचय हुआ। अभी तो नाम भी नहीं याद आते यद्यपि कोई बोले तो तुरंत एम मुस्कुराहट आ जाती है। मुझे अभी भी याद है कि पुस्तकालय में हँसी मना होने के कारण कितनी बार दाँत दबा के और मुँह ठूँस के हँसना पड़ता था। मेरी कई शामें माँ के निर्देश के विरूद्ध वहाँ देर तक बैठे कटी। यहाँ तक की जब मुझे अपने छोटे भाई को अपने साथ ले जाने को कहा गया तो मुझे बहुत बुरा लगता था क्योंकि वो थोड़ी देर में पढ़कर बोर हो जाता था और फिर मुझे उसे छोड़ने के लिये अपनी पढ़ाई छोड़कर घर आना पड़ता था। बालपुस्तकालय में कुछ नियम था ऐसा कि बारह से कम उम्र के बच्चे ही वहाँ सदस्य बन सकते हैं जबकि बड़ों को व्यस्कों के पुस्तकालय में जाना होता जहाँ अखबारों के अलावा कुछ भी नही था! कुछेक घोटाला कर के सदस्य तो बना ही रहा थोड़े दिनों। उन दिनों की, विशेषकर उस पुस्तकालय की याद मेरी जिंदगी का प्रिय हिस्सा है। ग्वालियर से जाने के बाद मुझे आज तक कोई ऐसा पुस्तकालय नही मिला कोटा (राजस्थान) में और फिर पढ़ाई की अन्य जिम्मेदारियाँ भी बढ़ गई।

अपनी उम्र के लोगों से जब बाल साहित्य के वर्णन सुनता हूँ तो हमेशा पाता हूँ कि अमर चित्र कथाऐं मेरी पठन श्रंखला में नही थी जबकि लगभग बाकी सब की में थी। शायद उस इलाके में ज्यादा प्रसिद्ध नही हो।

कोमिक्सों के मामलें में मैं अपने को धन्य ही मानता हूँ। मेरे बुआ के लड़के की कोमिक्स किराये पे देने की दुकान थी और मेरा गर्मिओं में बुआ के यहाँ जाने का एकमात्र उद्देश्य यही होता था कि दिन भर कोमिक्स पढ़ता रहूँ। वास्तव में मेरे अभी रिश्तेदार परेशान थे इस आदत से। नाना जी के यहाँ जाऊँ या बुआ के यहाँ, जहाँ किताबें मिले वहाँ बस यही काम। संगी-साथी और छोटे भाई-बहन खेलने को तरस जाते और मैं होता कि सोना खाना भूल कर एक ही काम। जहाँ किताब नही मिलती वहाँ हिंदी की पाठ्‍य-पुस्तक ही पकड़ लेता।

चौदह-पंद्रह साल तक सरिता, गृहशोभा, मनोरमा जैसी वयस्क पारिवारिक पत्रिकाऐं और फिर मनोहर कहानियाँ जैसी अपराध कथाऐं वाली पुस्तक भी सूची में शामिल हुईं। अब तक बचपन शायद छूट सा गया था और ये भी समझ में आ गया था कि लोगों को समय देना जरूरी है व किताबें रूक सकती हैं। पिछले कई वर्षों से इनमें से एक भी किताब हाथ में नही आई, पर मन करता है कि चंदामामा या ट्विंकल मिले तो पढ़ने के उत्साह में कमी नही होगी।

मेरी अंग्रेजी की किताबों का सफर चालू हुआ महाविद्यालय के द्वितीय वर्ष में टिनटिन से, पर वो फिर कभी और...

Saturday, September 2, 2006

दादागिरी

अमेरिकन जहाजी बेड़े की कनाडियन तट अधिकारियों से संपर्क की घटना:

अमेरिकन: टक्कर से बचने के लिये अपना रास्ता १५ डिग्री उत्तर की और मौड़ें।
कनाडियन: ये बेहतर होगा कि आप अपना रास्ता १५ डिग्री दक्षिण की और मौड़ें।
अमेरिकन: ये अमेरिकन जल सेना का कप्तान बोल रहा है। मै कहता हूँ, आप अपना रास्ता मौड़ें।
कनाडियन: नही, मैं फिर से कहता हूँ आप अपना रास्ता मौड़ें।
अमेरिकन: आप नही जानते मैं कौन हूँ। मैं अमेरिका के दूसरे सबसे बड़े जहाज यू. एस. एस. लिंकन का कप्तान हूँ। हमारे पास तीन लड़ाकू विमान, तीन पनडुब्बियाँ और कई अन्य हथियार और वाहन हैं। मैं आज्ञा देता हूँ कि आप अपना रास्ता १५ डिग्री उत्तर की और मौड़ लें अन्यथा इस जहाज की सुरक्षा हेतु जवाबी कार्यवाही की जा सकती है। परिणाम भुगतने के लिये तैयार रहें।
कनाडियन: ये लाईट हाउस है। बाकी आपकी मर्जी।

Breaking the Bias – Lessons from Bayesian Statistical Perspective

Equitable and fair institutions are the foundation of modern democracies. Bias, as referring to “inclination or prejudice against one perso...