Thursday, September 7, 2006

भगवान के नाम पर मत दो

शायद आपको ये पहले से ही पता हो कि कई भिखारी भीख माँग के इतना पैसा बना लेते हैं कि शान की जिंदगी जीते हैं। बंबई के समाचार पत्र मिड-डे में छपी खबर के अनुसार जब कुछ स्वयं-सेवी संस्थानों ने भिखारिओं को नौकरी की पेशकश की तो कईयों ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। कारण? जो व्यक्ति भीख माँगकर दैनिक सैकड़ों कमाता हो वो क्यों चंद हजारों के लिये महिना भर मेहनत करेगा?

बचपन में सुना करते थे ऐसे भिखारिओं के बारें में जो दुपहिया वाहन में स्तरीय कपड़े पहन के भीख माँगने जाते हैं और वहाँ जाकर अपना हुलिया दयनीय बना लेते हैं। प्रसिद्ध मंदिरों/मस्जिदों के बाहर और विदेशी पर्यटकों के विचरण स्थान पर कुछ इलाकों में काम करने वाले भिक्षुक भी कई मध्यम या निम्न-मध्यम वर्गीय मेहनतकारों से अधिक संपन्न होते है। और ऐसे इलाके इनके विवाह में दहेज मे लिये-दिये भी जाते है और गुन्डागर्दी से छीने भी।

ये भिखारी हमें भीख देने से मिलने वाली शांति और दूसरों का भला कर परलोक में अपना स्थान पक्का करने का टिकट बेचते हैं।ऐसा निश्चित ही है कि सभी भिखारियों की हालत ऐसी नही। हम सर्दी-गर्मी और भूख से मरने वालों की खबर भी आये-बगाहे सुनते ही रहते हैं। पर कितने भिखारी काम की अनुपस्थिती में भीख माँगते हौ और कितने काम से जी चुराने के लिये इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। विशेषकर महानगरों में दूसरी श्रेणी के याचकों की संभावना ज्यादा प्रतीत होती है। यद्यपि मैं यूँ भी भीख देने पक्षधर नही नही हूँ, उन लोगों को अपनी मेहनत के पैसे देना जो काम नही करना चाहते और भी कड़वा लगता है।

एक पक्ष यह भी उठाया जा सकता है कि भिखारी भीख नहीं माँगते बल्कि उसी प्रकार उद्यम करते हैं जैसे ऊटपटाँग वस्तुओं के विक्रेता, झूठ बोलकर सामान बेचने वाली कंपनी के प्रबंधक, नीम-हकीम इत्यादि करते हैं। ये भिखारी हमें भीख देने से मिलने वाली शांति और दूसरों का भला कर परलोक में अपना स्थान पक्का करने का टिकट बेचते हैं। काम भले ही गलत हो पर क्या हमने किसी चपल विक्रेता से ऐसी वस्तु नही खरीदी जिसका कोई उपयोग नही था?

ये नई बात नही कि कुछ लोग हमारी इंसानियत का फायदा उठाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं, नयी बात यह है कि जो भीख की जिंदगी त्यागकर मेहनत करके सम्मान की जिंदगी जीते है हमे उनका आदर करना चाहिये। अब जब भी किसी नौकर, चौकीदार, कामवाली या ठेलेवाले को देखूँगा तो ये याद रखूँगा कि ये शायद कम पगार में ज्यादा मेहनत का काम सिर्फ इसीलिये कर रहे हैं कि उन्हें इज्जत मिले, और वो इज्जत देना मेरी भी जिम्मेदारी है।

Book Review - Music of the Primes by Marcus du Sautoy (2003)

I can say, with some modesty, that I am familiar with the subject of mathematics more than an average person is. Despite that I hadn’t ever ...