Monday, July 31, 2006

सहनशीलों की असहनशीलता

आजकल पॉलिटिकल-करेक्टनेस (political correctness) का जमाना है। और जो मुझे जानते है वो ये भी जानते हैं कि मुझे यह शब्द और यह विचार हमारी सामन्य दिनचर्या में थोपा गया थोथलापन प्रतीत होता है। राजनेताओं से आपेक्षित यह बात आजकल हर किसी पर लागू होती है। मुझे सच को बिना घुमा-फिराकर कहने की आदत है। मुझे ये भी पता है कि सबके अनुसार सच अलग-अलग होते है, और मैं सबकी अपने अनुसार बिना गलत समझे जाने के डर के सच कहने की स्वतंत्रता में विश्वास रखता हूँ। पर जैसा सभी जानते है, आजकल वैसा संभव नही। आपको अपनी बातों में कईयों 'लेकिन-परंतु' लगाने पड़ते है और हर बात में ये ध्यान रखना पड़ता है कि ना जाने कोन से विचारावलंबियों को या समुदाय को आप नाराज़ ना कर दें। डर-डर के एक-एक शब्द बोलना या लिखना पड़ता है वरना सभी के प्रति सहनशीलता के ठेकेदार आपकी भावानाओं को किसी-ना-किसी के विरोधी करार देगें और आपको असहनशील घोषित कर देगें, भले ही आपने उस बारें में सोचा तक नही हो।

पिछले कुछ दिनों में मैं रिमी सेन के अफ़्रीकनों की सुंदरता पर दिये बयान और कभी अलविदा ना कहना में दर्शाई बेवफ़ाई पर हुई बहस का हिस्सा बना, और एक बात मैने देखी कि असहनशीलता अब नया रूप लेके प्रकट हो रही है। इस नए रूप के अनुसार आपको हर किसी के विचारों से सहमत होना पड़ेगा और पॉलिटिकली-करेक्ट विचार रखने पड़ेंगे। इन विचारों के लोग बहुत सहनशील होते है और जो व्यक्ति इनकी नज़रो में सहनशील नही होता वो व्यक्ति इन लोगों को सहन नही होता। विचारों की भिन्नता को स्वीकारना भूलकर हम सारी दुनिया को एक जैसा बना देना चाहते है - वैसा जिसमें कोई किसी बात पर प्रश्न ना उठा सके और किसी विचार से हटकर सोच ना सके। साथ ही मुझे डर है कि हम किसी बात को हल्का लेकर मज़ाक में उड़ाना भूलते जा रहें है। हम सहनशीलों की असहनशील भीड़ में बदलते जा रहें हैं।

इसी विषय पर एक और रुचिकर बात ये प्रतीत होती है कि हमारे समाज़ के पैमाने के अनुसार कुछ विचार या समूह किसी अन्य विचार या समूह से ज्यादा नाज़ुक होते है और आपकी सहनशीलता सिर्फ पहले समूह के लिये आकांक्षित है, दूसरे के लिये नही। स्त्री-पुरूष के बारे में कुछ बोलो तो लैगिंकवादी (sexism) पर बच्चे-बूढ़े के बारे में बोलो तो "उम्रवादी" (ageism) क्यों नही? काले-सफेद के बारे मे बोलो तो रंगभेद (racism) पर मोटे-पतले के बारे में बोलो तो "वज़नभेद" ("weightism") क्यों नही? हिन्दु-मुसलमान के बारे में बोलो तो धर्म के अनुसार भेद पर राजनेता या व्यापारी को गाली दो तो उद्यम के अनुसार भेद क्यों नही? मैं जरूरी नही इनमे से किसी भी बात का समर्थन करता हूँ, पर मुझे यह रुचिकर लगता है कि किस तरह एक समूह के लोगों का नाराज़ होना समाज को मंज़ूर है - बल्कि अपेक्षित है - और दूसरे समूह के लोगो का नाराज़ होना मंज़ूर नही, और किस तरह इतिहास इन विचारों के विकसित होने में भागी है।

इस प्रविष्टि की उपस्थिती से आप कुछ विषयों में मेरे पक्ष का अंदाजा लगा सकते हैं - और चूँकि ये पॉलिटिकल-करेक्टनेस का जमाना है - मुझे ये बताना जरूरी है कि किसी भी विचार को अनेक पहलुओं से देखने की मेरी आदत है और जरूरी नहीं कि मैं उनसे सहमत होऊँ, पर उन पहलुओं की उपस्तिथी ही उस विचार को रुचिकर बनाती है।

Sunday, July 30, 2006

इंटरनेट पर जाओ - मच्छर भगाओ

संगणक (computer) और अंतर्जाल ने दुनिया कैसी बदल दी है वह किसी से छुपा नही है। चूहे के द्वारा स्पर्श से शुरू अंतर्जाल ध्वनि और चलचित्रों के माध्यम से हमारी आँखों के साथ-साथ हमारे कानों पर भी छा रहा है। नये अनुसंधानों के अनुसार वह दिन भी दूर नही जब हम गंध भी अंतर्जाल पर बाँट सकेंगे। जालस्थल के द्वारा भेजे गये विशिष्ट संदेशों को आपके संगणक से जुड़ा यंत्र अपने अंदर स्थित दो-तीन गंधो को मिलाकर नई गंध बना देगा (जैसे कि अभी रंग बनते हैं)। अभी-अभी प्राप्त सूचना से ये ज्ञात हुआ है कि कोरिया स्थित एम्पास कंपनी ने ऐसा निःशुल्क टूलबार बनाया है जिसके इंस्टाल करने से मच्छर भाग जाते हैं। कंपनी के अनुसार ये टूलबार संगणक से ऐसी ध्वनी उत्‍पन्न करवाता है जिसे सिर्फ मच्छर ही सुन सकें और आसपास से भाग जायें। जिन वस्तुओं का संगणक/अंतर्जाल से कुछ लेना-देना नही वहाँ भी इनकी उपयोगिता आश्चर्यचकित करने वाली है। आने वाले समय में विज्ञान-कल्प की कथाऐं असंभव नही लगती!

साथ ही: चिठ्ठे दक्षता से पढ़ना
यदि आप कई चिठ्ठे पढ़ते हैं और उनमें कोई नई प्रविष्टि आई या नही की जाँच करने चिठ्ठों पर जाते हैं, तो चिठ्ठों के फ़ीड पाठकों की मदद से काम बहुत ही आसान हो जाता है। नई खबर के लिये नारद जी के दरवाजे भी जाने की जरूरत नही, और तो और, आप प्रविष्टियाँ भी बिना चिठ्ठे पर जायें पढ़ सकते हैं। ब्लॉगलाईन्स (bloglines) नामक फ़ीड पाठक सरल और उपयोगी है। यही नही समस्त समाचारों की ताजा जानकारी इससे जुटाई जा सकती है। जो लोग इसके बारें में नही जानते हों वे आज ही जानकारी प्राप्त करें और अंतर्जाल(धन्यवाद आलोक जी) जाल २.० की क्रांति मे शामिल होवें! ऐक बार फायदे जान जायेंगे तो फिर ना नही कर पायेंगे!

उपलेख (जुलाई २९): आप मच्छर का टूलबार यहाँ से डाऊनलोड कर सकरे हैं। एम्पास के जालपृष्ठ को पढ़ने के लिये गूगल अनुवादक का उपयोग करें, हांलाकि सफलता ज्यादा नही मिलेगी। टूलबार का इंस्टालेशन भी कोरियन भाषा में है!

Saturday, July 29, 2006

तर्क-वितर्क, उम्र-परिपक्वता

अभी मेरी उम्र ज्यादा नही है। (महा)विद्यालय परिसर के बाहर कदम रखे हुये गिनती के दिन हुऐ हैं। फिर भी पिछले दो-चार वर्षों मे कितना कुछ पढ़ने से (मुख्यतर चिठ्ठों पर) और बहुरूचि लोगों के संपर्क मे आने पर पर ऐसा महसूस होता कि सोच में बहुत गहरा परिवर्तन आया है। लोग कहतें है कि पच्चीस वर्ष की आयु तक इंसान की सोच पत्थर की लकीर की तरह कठोर हो जाती है और वह बाकी की सारी जिंदगी उनही विचारों के दायरे मे बिना किसी खास परिवर्तन के जीता है। शायद मेरी उम्र का भी ये पढ़ाव अंत की और है।

पिछलों चार सालों के अंदर, जबसे मैनें राजनिती और अपने आसपास की दुनिया में रूचि लेनी शुरू की, मैंने ना जाने कितनी बार अपने विचार पैने किये, बदलें और नये विचार अपनाये। अगणित बहसों में हिस्सा लिया। अगर ये कहूँ कि लगभग बहस के हर संभव विषय - जिनमें मेरी रूचि और जानकारी है - पर मैं भाग ले चुका हूँ और मेरी राय बन चुकी है तो अतिश्योक्ति नही होगी। लिनक्स-विंडोज़, आरक्षण, नारी अधिकार, समलिंगी लोग, भारत-पाकिस्तान, महात्मा गाँधी, चुनाव, लोकतंत्र, बलात्कार की सजा, पूँजीवाद-समाजवाद-साम्यवाद, आस्तिकता-नास्तिकता, हिन्दु-मुस्लिम, ईसाई धर्म परिवर्तन, ईराक, इतिहास की सच्चाई, आदि...के विषयों पर तार्किक विवाद, कटाक्ष और खौलती गाल-गलोच समस्त का उपयोग कर या देख चुका हूँ। लेकिन आज तक, बिना अपवाद, मुझे एक भी एसा मनुष्य नही मिला जिसके विचार पूरे विवाद के तर्को के आधार पर अपनी शुरूआती स्थिती से क्षणिक भी भटके हों। मेरे तर्क किसी की राय में तिलमात्र परिवर्तन नही कर पाये। ना ही उनकी राय का मेरे विश्व-वृत्त पर असर हुआ।

ऐसा नही है कि मैं बिल्कुल ही हठधर्मी हूँ। अपने अनुसार मैं सदा ही खुले विचारों का इंसान हूँ - जैसे कि हर इंसान होता है। परंतु अधिकतर बहसों में मेरा पक्ष मुझे बेहतर लगता है - दूसरे पक्षों के गुणों को लेकर भी। ऐसा भी नही कि मेरे विचारों में परिवर्तन नही आया। अमित वर्मा के चिठ्ठे से मेरा झुकाव पूँजिवाद की और बढा है, शांत चीख (blank noise) ने स्त्री उत्पीड़न के बारे में संवेदना जगाई है, और एलन और बारबरा पीज़ की पुस्तक "आदमी क्यों नही सुनते और औरतें नक्शा क्यों नहीं पढ़ सकती" ने समलैगिकों के प्रति मेरी राय में काफ़ी अंतर डाला है। परंतु ये भी तब ही कि शुरू से ही मेरी विचार इन विषयों मे कच्चे थे, या ये कहें मैं कट्टर नही था, इसीलिये जो मिला उसी की और बिना प्रतिरोध झुक गया। किंतु जिन बिंदुओं पर मेरे विचार लगभग पक्के हो चुकें है, मुझे नही लगता वे कभी बदलेंगे। ये कथन मेरे चरमपंथी की और इशारा कर सकता है पर मेरा अनुभव कहता है कि सभी के साथ ये होता है। और फिर जब सभी अपनी राय को बेहतर मानते हैं तो इस दृष्टि से सभी चरमपंथी हुये ना?

परिचर्चा पर भी कुछ-एक विषयों पर बहस भी मेरी राय को और मजबूत बनाती है। यहाँ तक की मेरा ये विश्वास हो गया है कि तर्कों से किसी के भी विचार, जो एक बार विचार बना लेता है, परिवर्तित ही नही किये जा सकते। और तर्क-वितर्क मुझे अब सिर्फ बैठे-बिठाये का मनोरंजन या भावनाओं का विस्फोट प्रतीत होता है, ना कि अपने विचारों का आदान-प्रदान कर समस्या के हल की और पहुँचने का साधन। मेरे अनुसार कोई भी बहस अपने-अपने पक्षों की घोषणा बे बाद समाप्त हो जानी चाहिये, क्योंकि विपरीत पक्ष को अपने पक्ष मे लाने के समस्त प्रयास सदा ही व्यर्थ हैं। मुझे ये नही पता कि इस बात का अनुभव इतनी बड़ी बात होनी चाहिये या नहीं, लेकिन मेरे लिये तो यह मानव मनोवृत्ति की अनापेक्षित खोज थी। यह भी नही जानता कि इस बात की जानकारी मेरे जीवनदर्शन के लिये लाभदायक है या हानिकारक।

एक और बात जो मुझे अब समझ मे आई वो ये कि कोई कितना भी बड़ा आदमी हो (औहदे, शौहरत या दौलत में) उसकी कही हर बात को मूल्य नही दिया जा सकता। निश्चित ही ये वाक्य किसी को शायद जाहिर प्रतीत होता हो, मेरे जीवन-दर्शन में, जहाँ मैं अपने अध्यापकों और महापुरूषों के विचारों को बिना प्रश्न मूलमंत्र मानता था, एक झटकेदार अंतर है। इतिहास को जो मैं सत्य मानता था उसमें भी कितने प्रश्नचिन्ह लगे हैं ये जाना। यहाँ तक कि हम विश्वास के साथ ये भी नही कह सकते ही महात्मा गाँधी के अंतिम शब्द 'हे राम!' थे - इसमें भी राजनीतिक चालों की धोखेबाज़ी का आरोप है। और फिर सभी महापुरूषों के विचारों मे इतनी विभिन्नता देखी-पढ़ी है कि सच और झूठ भी आपस मे घुल-मिल गया है। जिंदगी काली-सफेद वाली सरलता से इतने रंगों में रंग कर भ्रामक हो गई है।

शायद जीवन के इन मूल्यों को समझना ही परिपक्वता है। मेरी माँ कहती है कि मैं पागल हो गया हूँ/होने वाला हूँ क्योंकि मैं अभी से ही बहुत ज्यादा सोचने लग गया हूँ।

Thursday, July 27, 2006

ब्रह्मांड का अंत: क्या जानना आवश्यक?

कैसी मौत चाहेगें आप? धीमे धीमे फैलते अंतरिक्ष में ठंडे हो कर "बिग चिल" से मरना, या फिर तपाक से सिकुड़ते ब्रह्मांड मे ऊष्मा से पिघल कर "बिग क्रंच" से? या फिर कहिये तो तेजी से विस्तारित होते संसार के साथ तुरंत विस्फोटक ढंग से अ‍त? अथवा आप उन आशावादी लोगो मे से है जो विश्‍वास करतें है कि ठंडे संसार मे इंसान अणु-परमाणुओं से बने धूल के अंतहीन गुब्बारे की तरह, या फिर गर्म संसार मे अनंत ऊर्जा की उपलब्धि से निर्मित काल्पनिक दुनिया (virtual reality) में अपना अस्तित्व बनाये रख सकेगा। और कुछ नही तो आप सोचते होगें कि तकनिकी प्रगति हमें इस ब्रह्मांड से निकाल कर दूसरे ब्रह्मांड मे जाने का मार्ग सुझा देगी, शायद वर्महोल (wormhole) द्वारा? नही तो आप शायद उन निराशावादी लोगों मे से हैं जो ये मानते हैं कि मानव का अंत ब्रह्मांड के अंत से पहले हो जायेगा, जैसे की मानव जाति प्राकृतिक ढंग से लुप्त हो जायें अथवा हम लोग आपस मे ही मर-खप जायें? (मुझे इसी श्रेणी में गिनिये)

क्या यह जरूरी है इन प्रश्‍नों को पूछना? या इनका उत्तर जानना? क्या हमें चिंता है कि हमारे पर-पर-...पुत्रों-पुत्रियों का क्या होगा? क्या होनी चाहिये? ब्रह्मांड शास्त्र (cosmicology) का अस्तित्व क्यों है फिर? अंत में, क्या मानव अपनी बुद्धी की वज़ह से शापित है कि जानकर भी कि कुछ हल नही निकलेगा, कि कुछ हम करें - या ना करें - कुछ बदल नही पायेगा, फिर भी हम मज़बूर हैं इन प्रश्‍नों को सोचनें कि लिये, और शायद बिना जाने ही नष्ट हो जाने के लिये? क्या ज़रूरत से ज्यादा अकंलमंदी शाप है?

संदर्भ: क्या ब्रह्मांड का अंत आवश्यक?

Tuesday, July 25, 2006

केक बराबर-बराबर बाँटना

यदि आप ने अपना जन्मदिन मनाया अथवा किसी के जन्मदिवस के समारोह में गये हों तो निश्चित ही आपने केक काटा या खाया भी होगा। निश्चित ही आपको छोटा टुकड़ा ही मिला होगा। क्या करें सभी को अपना-अपना टुकड़ा छोटा लगता है ये मुरफ़ी मरफ़ी (धन्यवाद रवि जी) का नियम[१]है। और यदि आपने कभी अपने एक से ज्यादा बच्‍चों में कुछ चीज (जिसकी गिनती ना की जा सके) बाँटने की कोशिश की होगी तो एक ना एक बार तो आप पर ये भी आरोप लगाया गया होगा कि आप 'छोटे बेटे'/'बहन'/आदि को बाकी बच्‍चों से ज्यादा प्यार करतें है और उसे बड़ा टुकड़ा देते हैं। यदि आप सोने के तराजू से भी तोलकर बाँटे तो भी आरोप आपका साथ नही छोड़ते, क्योंकि किसी को बराबर मिलना अलग बात होती है जबकि किसी को बराबर मिलने की संतुष्टि होना अलग। क्या कोई ऐसा तरीका है जिससे सभी को अपने अपने टुकड़े से खुशी हो? जिससे हर कोई सोचे कि उसका टुकड़ा किसी और से टुकड़े से क्षणिक भी छोटा नही, हाँ शायद थोड़ा बड़ा ही है? जिससे बराबर भले ही ना मिले पर सभी को लगे कि उनको बेहतर हिस्सा मिला?

जी बिलकुल है। इसे गणित में उचित केक काटनें की समस्या कहतें है। समस्या का सार है कि किसी केक (या अन्य चीज) को - जो की हर दिशा से समान हो - कुछ लोगों - जिनकी केक के विभिन्न भागों के बारें मे पसंद अलग ना हो और जो सभी केक का बड़ा से बड़ा टुकड़ा चाहतें हो - में सफलतापूर्वक कैसे बाँटा जाये? आपके पास काटने के चाकू के सिवा कुछ नही है।

चलिये दो लोगो से शुरू करते है। क्या हल हो सकता है इसका? ये तो सरल है, 'मैं काटू तू चुन'। एक व्यक्ति अपने हिसाब से बराबर-बराबर भागों मे काटेगा और दूसरा अपने हिसाब से बड़ा टुकड़ा चुनेगा, बचा हुआ पहले व्यक्ति का हिस्सा। चूँकि दूसरे ने पहले चुना उसे शिकायत नही कि उसे छोटा मिला, और चूँकि पहले ने अपने हिसाब से बराबर ही काटे थे तो उसको शिकायत नही उसे छोटा मिला क्योंकि उसे तो कोई भी मिले वो अच्छा।

अब तीन लोगों का सोचते हैं। पर जैसा कि गणित में अधिकतर होता है, जैसे ही खेल के खिलाड़ियों की संख्या बढ़ती है, सर्वश्रेष्ठ हल की कठिनाई भी तीव्र गति से बढ़ती है। इसके हल को तो मुझे ढूढ़ना तो दूर समझने में ही काफ़ी समय लग गया। अगर आप ढूँढ लेते है तो अपने को जीनियस मान कर पीठ थपथपा लीजिये। मानिये तीन लोग अमर, अकबर और एन्थोनी है। तो सबसे पहले अमर केक को अपने अनुसार तीन बराबर के टुकड़ों में काटेगा। अब अकबर उन तीन टुकड़ों को बड़े से छोटे क्रम में बाँटेगा। यदि पहले स्थान के लिये दो टुकड़े बिलकुल बराबर हैं अकबर की दृष्टि में तो वो कुछ नही करेगा (इससे फर्क नही पड़ता की तीसरा भी बराबर है या दोनो से छोटा है)। इसे स्थिती १ मान लें। और यदि ऐसा नही है तो अकबर सबसे बड़े (उसकी नज़र में) टुकड़े को काट कर उसे दूसरे स्थान पर आने वाले टुकड़े के बराबर कर देगा। कटे हुये केक के टुकड़े (इसे आगे से 'कतरन' कहा जायेगा) को अलग रख दिया जायेगा। इसे स्थिती २ मान लें। अब तीन टुकड़ों मे से एन्थोनी अपने हिसाब से सबसे बड़ा टुकड़ा चुन लेगा।

यदि हम स्थिती १ में है तो इसके बाद अकबर बाकी दोनो में से अपने लिये बड़ा टुकड़ा चुन लेगा, और अमर बचा हुआ टुकड़ा। चूँकी एन्थोनी ने सबसे पहले चुना है उसको कोई शिकायत नही होनी चाहिये। क्योंकि अकबर के अनुसार दो टुकड़े बराबर थे (तभी तो हम स्थिती १ में है, नही होते तो अकबर टुकड़े की कतरन काट लेता और मामला दूसरा होता) इसलिये यदि एन्थोनी ने सबसे बड़ा ले भी लिया तो भी उसके लिये भी सबसे बड़ा बचा है और वो उसे ले सकता है। और जब अमर ने अपने अनुसार सब बराबर ही काटे थे तो फिर उसको क्या चिंता बाकी दोनो क्या लें, उसका टुकड़ा निश्चित ही किसी से कम नही।

यदि हम स्थिती २ में है और हम अकबर द्वारा काट के अलग रखी गयी कतरन को भूल जायें तो पुनः स्थिती १ जैसी अवस्था हो जाती है क्योंकि अभी भी दो टुकड़े अकबर को बराबर लगते हैं। इनका बँटवारा भी वैसे ही हो सकता है: एन्थोनी पहले चुनेगा, तद्पश्चात अकबर और फिर अमर। एक छोटी सी बात है पर। यदि एन्थोनी ने उस टुकड़े को लिया जिसे अकबर ने काटा था और कतरन निकाली थी, तो अकबर बचे हुये टुकड़ों मे से बड़ा वाला चुन सकता है और अमर अंतिम टुकड़ा। पर यदि एन्थोनी ने कोई और टुकड़ा लिया (बिना कटे दो में से) तो अकबर को उसके द्वारा काटा गया ही लेना होगा। ऐसा करने पर हम उसके साथ अन्याय नही कर रहे क्योंकि कतरन निकालने के बाद वो टुकड़ा सबसे बड़ा टुकड़ा बन चुका है अकबर के अनुसार। हम उसे उसके अनुसार बड़ा ही दे रहे हैं। अंत मे अमर बचा टुकड़ा ले लेगा। हमे अकबर को कटा हुआ टुकड़ा देना पड़ेगा क्योंकि वो टुकड़ा उसकी नज़र मे सबसे बड़ा है जबकि अगर अकबर कटा टुकड़ा नही लेता तो अमर के लिये वो टुकड़ा बचेगा जिससे अमर निश्चित ही संतुष्ट नही होगा (क्योंकि उसने तो सब बराबर काटे थे, अकबर ने कतरन निकाली तो फिर वो तो अमर की दृष्टि में छोटा हो गया ना)। इस प्रक्रिया में चूँकि हमारा बँटवार स्थिती १ के अनुसार ही हुआ तो सभी संतुष्ट होने चाहिये और सभी को लगना चाहिये कि उसका टुकड़ा किसी छोटा नही।

लेकिन अभी वो कतरन तो बची हुई है। उसे भी तो बाँटना है। उसके लिये अकबर और एन्थोनी मे से किसी एक को उस कतरन के तीन बराबर-बराबर टुकड़े करने होंगे। फिर अकबर और एन्थोनी में से जिस ने टुकड़े नही किये अभी वो पहला टुकड़ा (कतरन का टुकड़ा) चुनेगा, और जिस ने टुकड़े करे वो दूसरा। अमर बचा हुआ कतरन का टुकड़ा लेगा। क्योंकि अकबर और एन्थोनी मे से जिसने टुकड़े करे उसके लिये तो सभी बरबर है, और जिसने पहले चुना उसको भी कोई शिकायत नही। पर चूँकि अमर ने शुरू मे तीन बराबर टुकड़े किये थे, कोई भी कतरन जो अकबर ने काटी अगर वो अमर को ना भी मिले तो उसे आपत्ति नही होनी चाहिये (यही कारण है कि स्थिती २ में अगर एन्थोनी अकबर द्वारा कतरा टुकड़ा नही लेता तो वो अकबर को ही लेना पड़ता क्योंकि अमर वो नही चाहेगा)। इसलिये यदि अमर को कतरन के तीन छोटे टुकड़ों मे से सबसे छोटा भी मिले तो भी वो खुश क्योंकि उसे जितना मिला उतना भला।

हम्फ!! तीन लोगो के साथ ये हाल हो गया समस्या सुलझाने मे तो चार या ज्यादा से क्या होगा? हांलाकि हल का तरीका लगभग वही रहेगा: पहला चार टुकड़े करे, फिर दूसरा दो की कतरन काट कर तीन बराबर बना दे, फिर तीसरा एक की कतरन काटकर दो बराबर बना दे और अंत मे चौथा अपना टुकड़ा चुने और बाकी विपरित क्रम मे चुने, इत्यादि...। अधिक जानकारी के लिये विकीपीडिया, ये पन्ना और गूगल खोज देखें।

सारी कहानी का सार? केक छोटा मिले तो चुपचाप खा लें, बड़े-बड़े के चक्कर में बहुत अक्कल खर्च होती है। और हाँ, बच्‍चे एक या दो बस :)

[जिन्हें बाल की खाल निकालनी हो उनके लिये: यदि पहला व्यक्ति, या हल की प्रक्रिया में कोई भी व्यक्ति, बराबर-बराबर हिस्सें करने की बजाय गलती से छोटा-बड़ा काट देता है तो हम इस समस्या को अलग हिस्सों के लिये अलग से हल कर सकतें हैं। अर्थात एक केक की बजाय तीन छोटे केक बाँटेंगे इसी तरह से।]

अंत मे इस प्रविष्टिं के पाठको से एक प्रश्न: क्या आपको मेरी लेखन शैली भाषणबाजी (patronizing) प्रतीत होती है? कुछ लोग कहतें है कि मैं ऐसा लिखता हूँ, और यदि ऐसा है तो मैं निश्चित ही सुधारना चाहता हूँ।

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↑[१] मुरफ़ी मरफ़ी के नियमानुसार: जब कोई काम गड़बड़ हो सकता है तो वो गड़बड़ हो के ही रहेगा।

Sunday, July 23, 2006

मनुष्य तू बड़ा महान है

हिन्दी चिठ्ठाजगत में विचरण करते अब मेरे लगभग दो महीने पूरे हो गये हैं और मुझे सबसे आश्चर्यमयी और अनपेक्षित बात ये लगी कि आधे से ज्यादा लेखक यहाँ कवि है। निश्चित ही ये अनुपात हिन्दी भाषी जनता में कवियों के अनुपात से अत्याधिक है। यही नही, परिचर्चा के कविता बुनो धागे में भी लोग ऐसी ऐसी रचनाये स्वतः ही लिख जाते है कि मुझ जैसे काव्य-अनभिज्ञ को ये लगता है कि मैं किन साहित्य के महानुभवों के बीच आ फँसा! अभी तो केवल यही कारण समझ में आता है कि कविजन चिठ्ठे की और अधिक आकर्षित होते हैं क्योंकि शायद उनहे अपने काव्य के श्रोतागण मिल जाते हैं और प्रशंसकगणों का विस्तार बढ़ जाता है। दूसरा खयाल यह है कि जैसे प्रेम कथित रूप से इंसान को शायर बना देता है, उसी तरह चिठ्ठा चिठ्ठेकार को कवि बना देता है! किसी को इस विषय पर शोध करना चाहिये। कोई और व्याख्या है क्या?

अब मैंने तो जिंदगी में कोई कविता लिखी नही कि अपनी कविता यहाँ उद्धृत कर सकूँ, तो आप सभी को किसी और के द्वारा रचित मेरी पसंद की ही कविता से काम चलाना पढ़ेगा! इसी के साथ इंसान की आपसी विध्वंसक गतिविधियों के विरूद्ध मिल-जुल कर अपना भविष्य निवारने की आशा में समर्पित...

धरती की शान...
धरती की शान, तू भारत की संतान, तेरी मुठ्ठिओं मे बंद तूफ़ान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है, भूल मत, मनुष्य तू बड़ा महान है ॥२॥

तू जो चाहे पर्वत-पहाड़ों को फोड़ दे, तू जो चाहे नदियों के मुख को भी मोड़ दे,
तू जो चाहे माटी से अमृत निचोड़ दे, तू जो चाहे धरती को अंबर से जोड़ दे,
अमर तेरे प्राण...
अमर तेरे प्राण, मिला तुझको वरदान, तेरी आत्मा में स्वयं भगवान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है, भूल मत, मनुष्य तू बड़ा महान है।

नैनो में ज्वाल, तेरी गति में भूचाल, तेरी छाती मे छिपा महाकाल है,
पृथ्वी के लाल, तेरा हिमगिर सा भाल, तेरी भृकुटि में तांडव का ताल है,
निज को तू जान...
निज को तू जान, जरा शक्ति पहचान, तेरी वाणी में युग का आव्हान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है, भूल मत, मनुष्य तू बड़ा महान है।

धरती सा धीर तू है, अग्नि सा वीर तू जो चाहे तो काल को भी थाम ले,
पापों का प्रलय रुके, पशुता का शीष झुके, तू जो अगर हिम्मत से काम ले,
गुरू सा मतिमान...
गुरू सा मतिमान, पवन साधु गतिमान, तेरी नभ से भी ऊँची उड़ान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है, भूल मत, मनुष्य तू बड़ा महान है।

धरती की शान, तू भारत की संतान, तेरी मुठ्ठिओं मे बंद तूफ़ान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है, भूल मत, मनुष्य तू बड़ा महान है।


Manushya Tu Bada M...


यहाँ से डाऊनलोड करें।

Saturday, July 22, 2006

## Moved ##

As you must have noticed that this blog is practically defunct. I haven't posted anything since ages and frequency of posts had been abysmal. Subsequently, this blog has been terminated.

My blogging continues afresh on

दोस्त कैसे बनायें?

कुछ लोग होते हैं, जैसे कि मेरा छोटा भाई, जिनको दोस्तों की कमी नही होती। उनमे अपने आप ही वो जादू होता है जिससे लोग उनकी तरफ खिचे चले आते हैं और दोस्ती के उत्सुक होते हैं। ऐसे लोग अकसर महफिल की शान होते है और दोस्तों के बीच बादशाह। और कुछ लोग मेरी तरह अंतर्मुखी होते हैं जिनहें दोस्ती करने का शौक तो बहुत होता है पर दोस्त बनाने और बनाये रखने की कला नही आती। अंतर्मुखी और बहिर्मुखी लोगो की सामाजिक निपुणता इतनी अलग होती है कि दोनो के लिये अकसर ये समझना मुशकिल हो जाता है कि दूसरा ऐसा क्यों है। इसी लिये जब मैने डैल कार्नेजी (Dale Carnegie) की "दोस्त कैसे बनायें और लोगो को प्रभावित कैसे करें" (How to make friends and influence people) नामक पुस्तक पढ़ी तो बहुत ही अच्छी लगी। लेकिन यही पुस्तक मैरे बहिर्मुख मित्र ने पढ़ी तो उसे सब कुछ सामान्य लगा।

ऊपरी और से देखा जाये तो निश्चित ही किताब में कोई अत्याधुनिक जानकारी नही है और बहिर्मुख लोग ये बातें अपने आप ही जान लेते है, पर फिर भी सभी व्यवहार के गुणों को एक जगह पर लिख देने से मुझे तो उपयोगी जानकारी मिली। पुस्तक सार जनकल्याण हेतु यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। हाँ, लिखने से पहले कह दूँ कि कुछ लोगो को यह झूठा व्यवहार गलत लग सकता है पर मैं तो ये मानता हूँ कि अपने व्यवहार को इस तरह बदलना कि आपके सहकर्मी आपको पसंद करें, और इस प्रक्रिया में अच्छा मनुष्य बनना, कुछ गलत नही है। तो चलिये देखें आप कैसे दुनियाँ की आँखो का तारा बन सकते है!!

हमेशा ध्यान रखें
कभी मीन-मेंख ना निकालें।
सबका भला बोलें। पीठ पीछे चुगली ना करें।
दूसरों के लिये अपना समय, धन और नीतीयाँ त्याग कर सकें तो करें।
बिना स्वार्थ के दूसरों का भला करने की कोशिश करें

लोगो से मिलना
लोगो के नाम याद रखे और नाम लेकर बुलावें। लोग अपना नाम सुनना पसंद करते हैं।
सभी से मुस्‍कुरा कर मिलें। यह आपकी खूबसूरती बढ़ाने का सबसे सस्ता और कारगर तरीका है।

जब किसी से बात करें
लोगों से वो बात करे जो वो सुनना चाहते हों, वो नही जो आप कहना चाहते हों। उनकी पसंद के विषय छेड़ें।
ध्यान से सुने और रुचि दिखायें।
ऐसे प्रश्न पूछे जिनके उत्तर देने में दूसरे को खुशी मिलती हो।
लोगों से उनके बारे में बात करें और उनकी सफलता की बढ़ाई करें।
दूसरे को ज्यादा बोलने दें। अपनी बढ़ाई ना करें। नम्र बने।
दूसरे को महत्वपूर्ण महसूस होने दे। हर कोई खुद की महत्वता को ज्यादा आंकता है। इसे बढ़ावा दे।
तर्क-वितर्क से दूर रहें। आप तर्क जीत सकतें है, मित्रता नही। दूसरे को जीतने दें।
किसी को भी मुँह पर गलत ना कहें। पूर्वाग्रह से कार्य ना करें। विचारों को खुला रखें।

विवाद की अवस्था में
खुद को दूसरे के स्थान पर खड़ा कर के सोचें। दूसरे की दृष्टि से देखनें की कोशिश करें।
यदि आपकी गलती हो तो तुरंत खुशी से स्वीकार करें। दूसरे से पहले ही स्वयं अपनी भ्रत्सना करें।

अगर दूसरे की गलती हो तो
गलती बताने से पहले ईमानदारी से अच्छी बातों की प्रशंसा करे।
स्वीकार करें की आप से भी गलतियाँ हुई हैं।
गलतियों की तरफ अप्रत्यक्ष रूप से इशारा करें।
गलती सुधारने के लिये प्रोत्साहित करें। गलती की गंभीरता के बारे में अप्रत्यक्ष रूप से बतायें।
दूसरे को अपनी गर्दन बचाने का मौका दें। गलती के लिये सीधा नंगा ना करें।
काम के सही होने पर उत्साह बढ़ायें। उसे उसके गुणों को विकसित करनें को उकसायें।

कुछ करवाना हो तो
किसी से कुछ करवाना हो तो काम को करने वाले के लिये लाभ के रूप मे प्रदर्शित करें।
आज्ञा या आदेश की जगह सलाह दें या प्रश्न करें।
एहसान माँगे। लोग आप पर एहसान करना पसंद करते हैं। आभार प्रकट करें।
स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करायें।

मौल-तौल के समय (negotiations)
पहले उन बातों को सामने लायें जिनमे दोनो पक्षों की राय एक समान है।
दूसरे के विचारों की दृष्टि से बात करें और उसके लाभ को केन्द्र में बनाये रखें।
हर व्यक्ति के काम करने के दो कारण होते है: एक वास्तविक कारण और एक आदर्श कारण। उसके आदर्श कारण की दुहाई दें।

अपने विचारों को मनवाना
विचारों को नाटकीय ढंग से प्रस्तुत करें।
लोगों से राय लें और उनकी सलाह की इज्जत करें। उनहें महसूस होने दे कि विचार उनका है, आप तो भर उसे विकसित कर रहे हैं।

निश्चित ही ये तथ्य नये नही हैं, आप अच्छा ईंसान बनेंगें तो लोग स्वतः ही आपको पसंद करेगें। अंत मे ये सब तभी हो जब आप चाहते हैं कि दूसरे आपको पसंद करे और आप और सामने वाला दोनो एक ही स्तर के हों (मतलब कि कोई किसी पर आदेश देने की स्थिती मे ना हो तो), वरना तो जैसे चाहे करें। समय और परिस्थिती के अनुसार कुछ बिन्दुओं का उल्लंघन भी करना ही पड़ता है। और जैसे लेखक ने लिखा है इन गुणों को अपनी जिंदगी में ईमानदारी से उतारें, दोस्त बनाने के तुरत-फुरत नुस्खे की तरह ना माने। सामनेवाला पहचान जायेगा। अधिक जानकारी के लिये पुस्तक की अमॉज़न पर कड़ी देखें।

Tuesday, July 18, 2006

शादी का सवाल

शायद मेरी शादी का खयाल दिल मे...नही-नही अभी एसी कोई बात नही है पर मान लीजिये कि हो तो? मान लीजीये कि अप्रवासी भारतीयों की चट-मंगनी-पट-ब्याह की परंपरा का पालन करते हुये मुझे आदेश आ जाये कि इन बीस लड़कियों मे से एक चुन के फंदा बाँध लू तो? शर्त ये है कि हर लड़की को एक बार देखना है और निर्णय लेना है कि बात बनेगी कि नही। अगर बनेगी तो वहीं मूर्हत निकाल के सगाई-शादी तय कर दी जायेगी, और बात नही बनी तो लाईन मे अगली कन्या के घर चाय-पानी पीने चलेंगे। एक बार ना कहने के बाद निर्णय बदलना तो नाक-कटाने के बराबर है सो वो तो विकल्प ही नही। और मैं भी सीधे-साधे इंसान की तरह सबसे बढिया बीवी चाहूँ तो? भई, ये तो समस्या हो गई ना। किस को हाँ करूँ और किस को ना? जल्दी हाँ कर दी तो आने वाले बढ़िया अवसर हाथ से निकल जायेंगे, और देर लगाई तो ना जाने मौका हाथ आते हुये भी ठुकरा दिया हो तो?

कुछ ऐसी ही समस्या सोची होगी ऑपरेशन्स रीसर्च (operations research) वालों ने तभी तो उन्‍होने 'सुल्तान की दहेज की समस्या' बना डाली। और ये समस्या मियाँ-बीवी ढूढनें के अलावा नौकरी के साक्षात्कार में दस पदाभिलाषियों को चुनने जैसे कामों में भी आती है। आप चाहें तो इसे एक मजेदार खेल भी बना सकते है और अपने मित्रगणों को दिमाग लगाने को मजबूर कर सकते हैं। इस रोचक समस्या का हल भी ज्यादा कठिन नही और जो गणित की और रूझान रकते हो वे व्युत्‍पत्ति (derivation) के लिये इस लेख (PDF) को पढ़ सकते हैं। विकीपीडिया और ये पन्ना भी देखें। संक्षेप में हल यहाँ प्रस्तुत है:

आप पहले एक-तिहाई पदों में से किसी को ना चुने और इस अवधि में आगे मिलने वाली योग्यता का अनुमान लगायें। एक-तिहाई पदों के बाद उस पहले प्रार्थी को चुने जो कि प्रथम एक-तिहाई के सर्वश्रेष्ठ से भी अधिक पसंदीदा हो। ये मानके चला जा रहा है कि आप हर प्रार्थी को आंक सकते है और किसी मानक के रूप में एक-दूसरे से तुलना कर सकते हैं। इसे तकनीकी भाषा में उपयोगिता फलन (utility function) कहते हैं। तो n लोगो या वस्तुओं मे से सर्वश्रेष्ठ के चुनाव की संभावना तब अधिकतम होगी जब आप n/3 तक किसी को ना चुने और फिर अगला जो भी इनमें से सर्वश्रेष्ठ से बेहतर हो, या फिर अंतिम विकल्प हो, उसे चुने। अब प्रश्न ये है कि भैया जब हमारी होने वाली दुलहनों को ये फ़ॉर्मुला पता लगेगा तो फिर लाईन शुरू करनें के लिये तैयार कौन होगी?

अगर आपको इस तरह की व्यवाहारिक गणित और तर्क (logic) की पहेलियाँ पसंद हो तो इस चिठ्‍ठे को देखते रहीयेगा।

मिले सुर मेरा तुम्हारा

ये संभावना कम ही है कि इस चिठ्ठे के पाठकों ने 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' विडीयो का ये रूपांतरण नही देखा होगा, पर फिर भी यदि आप छूट गयें तो लीजीये आनंद इस कलात्मक ढंग से किये गये चित्रांकन का और 'गुड-ऑल्ड' दूरदर्शन को याद कीजीये। यहाँ जाकर भी यूट्‍यूब पर देख सकते हैं।



मेरे स्नातकोत्तर विश्वविद्यालय (बॉस्टन स्थित एम आई टी) के छात्रों द्वारा बनाया ये विडीयो पूरी तरह महाविद्यालय परिसर और आसपास चित्रांकित किया गया है सिवाय संगीत और गान के जो कि मेरा अनुमान है कि मौलिक विडीयो से ही लिये गये हैं। अंत मै कोरस गाने वाली भीड़ में मैं भी शामिल हूँ।

MP3 फाईल यहाँ से डाऊनलोड करें।

अगला विडीयो भी यादों को गोता लगवाने वाला है। जब टी वी पे आता था तो इसकी बखत नही होती थी पर अब नही आता है तो याद बन जाता है , है ना अजीब हमारी आदत भी? इसे भी यूट्‍यूब पे देखें।

Saturday, July 15, 2006

लगभग हर चीज का लघु इतिहास

ये लेख मेरे पुराने अंग्रेजी के चिठ्‍ठे ले लिया गया है, और बिल ब्रायसन की नई (अंग्रेजी) पुस्तक "लगभग हर चीज का लघु इतिहास" (short history of nearly every thing) का अवलोकन करने का प्रयास है। ये पुस्तक विज्ञान में रुची रखनें वालों के लिये खज़ाना है, और मेरी और से जरूर पढ़े की श्रेणी में आती है। तो शुरू करता हूँ इसकी बढ़ाई!

अभी ही इस पुस्तक को पढ़कर खत्म किया, और अनुभव, संक्षेप में नम्र कर देने वाला रहा। "लगभग हर चीज का लघु इतिहास" नामक ये पुस्तक अपने नाम पे शत-प्रतिशत खरा उतरती है। लेखक समय के आरंभ से अब तक होने वाले विज्ञान के मुख्य क्षेत्रो, जैसे की भौतिकी (physics), रसायनशास्त्र (chemistry), खगोल विद्या (astronomy), भूगर्भ विद्या (geology), जीवाश्मिकी (palaeontology), समुद्र शोध (oceanography), जीव विज्ञान (biology), आदि के समस्त इतिहास की प्रमुख घटनाओं को साधारण आदमी की भाषा में बड़ी ही सरलता से समझाता है। ब्रम्हांड, पृथ्वी, मानवता और विज्ञान की लंबी यात्रा, और हमें जो पता है और कैसे पता है का विस्तृत विश्लेषण, बिग-बैंग[१] (big bang) से लेकर ईक्‍कीसवीं शताब्दी तक बड़े ही रोचक और आश्चर्यचकित ढंग से इन ५०० पन्नो में समेटा गया है। एक अतुलनीय पठन, निश्चित ही।

पुस्तक शुरू करने से पहले मैरा ये सोचना था कि शायद पुस्तक दुनिया और जीवन का इतिहास तथ्यों के माध्यम से प्रस्तुत करेगी, परंतु बिल ने कहानी को कई वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं, खोजकर्ताओं और आविष्कारकों की दृष्टी से प्रस्तुत किया, और इस तरह से लेखन को शैक्षित ही नही बल्कि दिल छू लेने वाला भी बना दिया। और अंत में हर चीज की विशालता और विस्तीर्णता, संपूर्ण ब्रंम्हाड की उपयोगिता (अथवा अनुपयोगिता), और हम इंसानो की उपस्थिती की व्यर्थता कंपा देने वाली है। शायद कुछ निराशा भी होती है क्योंकि मानव ने सदा ही अपने जीवन का अर्थ ढूंढने का प्रयास किया है, और इसी विचार से कई दर्शनशास्त्रों का निर्माण और सतत विवाद किया है, जबकि किताब द्वारा हमें शब्दों को बिना घुमा-फिरा कर बताया गया है कि अर्थ कुछ भी नही है। कुछ भी नही। शून्य। हमारी धरती पर उपस्थिती केवल संयोगवश है, भाग्य के अगनित कर्मों का एक छोटा से हिस्सा। यही नही, हर चीज के इतिहास मे हमारी हस्ती अरबों-खरबों जीव-जंतुयों के समान नगण्य है। इंसान का कोई उपयोग नही, उद्देश्य नही, अस्तित्व नही, गिनती नही। शायद केवल, और इंसान पैदा करने के।

पुस्तक की शुरूआत होती है बिग-बैंग में समय की शुरूआत के साथ, और पदार्थ, ब्रम्हांड, अंतरिक्ष, आकाशगंगायें और पृथ्वी बनने से[२]। कहानी कालानुक्रमिक नही है क्योंकि विज्ञान की अनेक विधाओं मे शोध समांतर होते रहे, पर फिर भी समझने में सरल और उत्सुकतापूर्वक है। लेखन का विशेष लक्षण ये नही कि घटनाओं को उसी क्रम में दर्शाया जिस क्रम में वो हुई हों, पर ये हैं कि घटनाओं को उसी क्रम में प्रस्तुत किया गया जिस क्रम में उन्हे खोजा गया था। साथ ही समकालीन समाज के लोगों और संबंधित व्यक्तिओं की सनकों पर सटीक टिप्पणी की गई है और झलक दिखलाई गई है। लेखक नें भूगर्भ विद्या और जीवाश्मिकी का समन्वय, जीवविज्ञान और जिन्दगी का जोड़, ब्रम्हांड का विस्तार और जीवों का विकास (evolution), और हर किसी चीज का हर किसी चीज से संबंध का ऐसा जाल बुना है कि बस। पढ़नें के दौरान हम उन मशहूर विचारकों और अनुसंधानकर्ताओं के समय में यात्रा करतें हैं, उनके दुख और खुशियों में शामिल होते हैं, मानवता की जीत और हार से रूबरू होते हैं और मानव चरित्र का सुंदर और भद्दा चेहरा देखतें है।

हमे पता चलता है कि विज्ञान बहुत ही कठिन कार्य है। इतना कठिन कि आप सोच भी नही सकते। इतना कठिन की हमें आज की दुनिया में आश्चर्य होता है। लोग अपनी पूरी जिंदगी लगा देते है उस काम में जिसके पूरा करते ही उसे ठुकरा दिया जायेगा, प्रश्न उठायें जायेंगे, या फिर खण्डित कर दिया जायेगा। वे राजनीति के खेल, युद्धों के नुकसान, धन और साधनों की कमी से जूझते हैं। समकालील वैज्ञानिकों द्वारा विरोध किये जाते हैं, परिवार वालों की प्रताड़ना सहतें हैं और सामाजिक अंधविश्वासों का शिकार बनते हैं। कई मानवता को ज्ञान का सुंदर तोहफ़ा देने के बावजूद भी बिना नाम के, बिना श्रेय के, और अपने काम के श्रेय को दूसरे के नाम पर मड़ दिये जाने पर मर जाते है। कई केवल अपनी इच्छा शक्ति की वजह से तीव्र गरीबी से उठकर कुछ कर दिखाते है तो कई की बुद्धिमानी की सीमा से इतना आगे सोचते हैं कि उनकी सोच को समझना भी मुश्किल होता है। अपने शोध की लगन में कई अपनी जान की परवाह तक नही करते। हम जो भी जानते है उनकी वजह से जानते हैं, उस उन मे से कई को हम धन्यवाद भी नही कर सकते या ये भी पता नही कि करें भी तो किसे? ऐसे मे एक उदाहरण उठाना अन्याय ही प्रतीत होता है पर समझाने के लिये एक घटना बताता हूँ। एक वैज्ञानिक नें हिम-युगों (ice age) के काल की गणना करने के लिये पृथ्वी के सूर्य के चारों और चक्कर लगानें की गणना हेतु अपनी जिंदगी के बीस वर्ष उस सारणी बनाने में लगा दिये जो कि आधुनिक संगणकों के द्वारा बीस मिनिट से भी कम समय में पूरा की जा सकता है।

लेखक ने एक टिप्पणी उद्धृत की है कि वैज्ञानिक खोजें तीन चरणों की प्रक्रिया से गुजरती हैं। सर्वप्रथम, उनके सत्य पर प्रश्न उठाया जाता है, तदांतर उनकी उपयोगिता शक की जाती है, और जब आप ये सिद्ध कर दो कि ये उपयोगी खोज सच है तो वो गलत व्यक्ति को श्रेयित कर दी जाती है। कितना सघन कथन है यह? इस किताब को पढ़ने के बाद हमे ये पता चलता है कि कितने बुद्धिजीवि व्यर्थ हो गये क्योंकि उनके सहयोगियों ने उनका साथ नही दिया और नुकसान पहुँचाया, कि धार्मिक कट्टरता और रूढ़ीवादी समाज की वजह से कितना वैज्ञानिक विकास अवरुद्ध हुआ।

लेखक ने संसार के अकल्पनीय आयामों की महत्वता के लिये उनकी साधारण पदार्थों से बार-बार तुलना की है। अणु और बैक्टेरिया की क्रिकेट की गेंद से और ब्रम्हांड की संयुक्त राज्य अमेरिका के क्षेत्रफल से तुलना करके लेखन ने क्षितिज के अकल्पनीय विस्तार और परमाणु जगत की अर्थहीन अल्पता को हमे समझाने की कोशिश की है। पहाड़ो की ऊँचाई, सागर की गहराई, अंतरिक्ष का विस्तार, आकाशगंगाओं की गति, अगणित बैक्टिरियों की लगभग हर जगह सर्वशक्तिशाली जिंदगी (विशेष रूप से जब कुल मिलाकर देखें तो), हर चीज की जटिलता और साथ ही साथ अर्थहीनता...दुनिया बड़ी अजीब है।

कुलमिलाकर एक मजेदार पुस्तक जो लाखों उत्तर देती है और लाखों प्रश्न भी उठाती है जिनके जवाब पाने के लिये हमे विज्ञान के तरक्की करनें का इंतजार करना होगा, जो कि, संभवतः हमारी-तुम्हारी जिंदगी मे ना हो। क्योंकि जब १६०० ईसा-पूर्व से अभी तक की वैज्ञानिक खोजों का सार एक ५०० पन्नो की किताब में लिख दिया जाता है और एक-दो दिन में पढ़ लिया जाता है तो दिमाग जानकारी की अधिकता से अभिभुत हो जाता है और उन उन प्रश्नों के हल ढूँढ़ता है जिनके जवाब हमे, बदकिस्मती से अगले ५० पन्नों मे नही मिलेंगे, जैसे कि अभी तक मिल रहे थे।

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↑[१] बिग-बैंग उस धमाके कहते है जिससे माना जाता है कि हमारे ब्रम्हांड की शुरूआत हुई थी।
↑[२] ब्रम्हांड लगभग १३.५ अरब वर्षों पहले, सौर्य मण्डल लगभग ६ अरब वर्षों पहले, पृथ्वी लगभग ४.५ अरब वर्षों पहले, और जीवन की शुरूआत लगभग ३.५ अरब वर्षों पहले हुई। मानव का अस्तित्व २ लाख साल से कम पुराना है।

Saturday, July 8, 2006

क्यों होता है जिंदगी के साथ

कोई कितना भी अच्छा क्यों ना करे, उसके प्रति लोगों का व्यवहार उसके एक बुरा करने पर ही उलट जाता है। सभी लोग जानते हैं कि अगर कोई हमेशा ही आपके साथ अच्छाई करता है और जाने या अनजाने में एक बुराई कर देता है, तब भी उसकी अच्छाईयाँ उसकी बुराईयों से कई गुना भारी हैं। लेकिन फिर भी क्यों लोगों का नज़रिया तुरंत ही पलट जाता है? ऐसे अनेकानेक उदाहरण हर किसी को व्यग्तिगत और सार्वजनिक जीवन में मिल जायेगें। सचिन तेंदुलकर जब तक शतक पर शतक लगाकर भारत का नाम रोशन करता रहा तब तक तो वो भगवान बना लिया गया और जब उसके खेल में थोड़ी सी कमी आई वो तुरंत राक्षस बन गया। जो लोग कुछ दिनों पहले उसकी प्रशंसा करते नही थकते थे वो अब उसको जूते मारने के मौके ढूँढ रहे हैं।

और फिर बात सचिन की ही क्यों, कितनें दोस्तों को मैनें अनंत बार महाविद्यालय में अपने नोट्स देकर मदद की, और किसी कारण से एक को नही दिया (जो कि मेरी दृष्टि में सही था) तो तुरंत ही सबके बीच मतलबी कहकर बदनाम कर दिया गया। निश्चित ही ऐसा एक ही हादसा नही है। कभी तो ऐसा लगता है कि सबके लिये अच्छा इंसान बनना कठिन ही नही असंभव है। और अब जैसे और लोगो के अनुभव पढ़ता हूँ तो ऐसा सुनिश्चित ही लगता है कि कोई कितना भी महान आदमी हो उसकी भी कोई ना कोई बुराई करनें वाला जरूर मिल जायेगा, फिर मैं किस खेत की मूली हूँ। और यह भी कटु सत्य है कि ये समस्त बातें मुझ पर भी लागू होती हैं।

क्यों होता है ये जिंदगी के साथ कि आपकी एक छोटी सी गलती दुनिया की नज़रों में आपके द्वारा किये गये अनंत पुण्यों को धो डालती है और जिसका दाग भविष्य मे किये गयें अनेक पुण्य भी नही मिटा पाते?

Breaking the Bias – Lessons from Bayesian Statistical Perspective

Equitable and fair institutions are the foundation of modern democracies. Bias, as referring to “inclination or prejudice against one perso...