अभी मेरी उम्र ज्यादा नही है। (महा)विद्यालय परिसर के बाहर कदम रखे हुये गिनती के दिन हुऐ हैं। फिर भी पिछले दो-चार वर्षों मे कितना कुछ पढ़ने से (मुख्यतर चिठ्ठों पर) और बहुरूचि लोगों के संपर्क मे आने पर पर ऐसा महसूस होता कि सोच में बहुत गहरा परिवर्तन आया है। लोग कहतें है कि पच्चीस वर्ष की आयु तक इंसान की सोच पत्थर की लकीर की तरह कठोर हो जाती है और वह बाकी की सारी जिंदगी उनही विचारों के दायरे मे बिना किसी खास परिवर्तन के जीता है। शायद मेरी उम्र का भी ये पढ़ाव अंत की और है।
पिछलों चार सालों के अंदर, जबसे मैनें राजनिती और अपने आसपास की दुनिया में रूचि लेनी शुरू की, मैंने ना जाने कितनी बार अपने विचार पैने किये, बदलें और नये विचार अपनाये। अगणित बहसों में हिस्सा लिया। अगर ये कहूँ कि लगभग बहस के हर संभव विषय - जिनमें मेरी रूचि और जानकारी है - पर मैं भाग ले चुका हूँ और मेरी राय बन चुकी है तो अतिश्योक्ति नही होगी। लिनक्स-विंडोज़, आरक्षण, नारी अधिकार, समलिंगी लोग, भारत-पाकिस्तान, महात्मा गाँधी, चुनाव, लोकतंत्र, बलात्कार की सजा, पूँजीवाद-समाजवाद-साम्यवाद, आस्तिकता-नास्तिकता, हिन्दु-मुस्लिम, ईसाई धर्म परिवर्तन, ईराक, इतिहास की सच्चाई, आदि...के विषयों पर तार्किक विवाद, कटाक्ष और खौलती गाल-गलोच समस्त का उपयोग कर या देख चुका हूँ। लेकिन आज तक, बिना अपवाद, मुझे एक भी एसा मनुष्य नही मिला जिसके विचार पूरे विवाद के तर्को के आधार पर अपनी शुरूआती स्थिती से क्षणिक भी भटके हों। मेरे तर्क किसी की राय में तिलमात्र परिवर्तन नही कर पाये। ना ही उनकी राय का मेरे विश्व-वृत्त पर असर हुआ।
ऐसा नही है कि मैं बिल्कुल ही हठधर्मी हूँ। अपने अनुसार मैं सदा ही खुले विचारों का इंसान हूँ - जैसे कि हर इंसान होता है। परंतु अधिकतर बहसों में मेरा पक्ष मुझे बेहतर लगता है - दूसरे पक्षों के गुणों को लेकर भी। ऐसा भी नही कि मेरे विचारों में परिवर्तन नही आया। अमित वर्मा के चिठ्ठे से मेरा झुकाव पूँजिवाद की और बढा है, शांत चीख (blank noise) ने स्त्री उत्पीड़न के बारे में संवेदना जगाई है, और एलन और बारबरा पीज़ की पुस्तक "आदमी क्यों नही सुनते और औरतें नक्शा क्यों नहीं पढ़ सकती" ने समलैगिकों के प्रति मेरी राय में काफ़ी अंतर डाला है। परंतु ये भी तब ही कि शुरू से ही मेरी विचार इन विषयों मे कच्चे थे, या ये कहें मैं कट्टर नही था, इसीलिये जो मिला उसी की और बिना प्रतिरोध झुक गया। किंतु जिन बिंदुओं पर मेरे विचार लगभग पक्के हो चुकें है, मुझे नही लगता वे कभी बदलेंगे। ये कथन मेरे चरमपंथी की और इशारा कर सकता है पर मेरा अनुभव कहता है कि सभी के साथ ये होता है। और फिर जब सभी अपनी राय को बेहतर मानते हैं तो इस दृष्टि से सभी चरमपंथी हुये ना?
परिचर्चा पर भी कुछ-एक विषयों पर बहस भी मेरी राय को और मजबूत बनाती है। यहाँ तक की मेरा ये विश्वास हो गया है कि तर्कों से किसी के भी विचार, जो एक बार विचार बना लेता है, परिवर्तित ही नही किये जा सकते। और तर्क-वितर्क मुझे अब सिर्फ बैठे-बिठाये का मनोरंजन या भावनाओं का विस्फोट प्रतीत होता है, ना कि अपने विचारों का आदान-प्रदान कर समस्या के हल की और पहुँचने का साधन। मेरे अनुसार कोई भी बहस अपने-अपने पक्षों की घोषणा बे बाद समाप्त हो जानी चाहिये, क्योंकि विपरीत पक्ष को अपने पक्ष मे लाने के समस्त प्रयास सदा ही व्यर्थ हैं। मुझे ये नही पता कि इस बात का अनुभव इतनी बड़ी बात होनी चाहिये या नहीं, लेकिन मेरे लिये तो यह मानव मनोवृत्ति की अनापेक्षित खोज थी। यह भी नही जानता कि इस बात की जानकारी मेरे जीवनदर्शन के लिये लाभदायक है या हानिकारक।
एक और बात जो मुझे अब समझ मे आई वो ये कि कोई कितना भी बड़ा आदमी हो (औहदे, शौहरत या दौलत में) उसकी कही हर बात को मूल्य नही दिया जा सकता। निश्चित ही ये वाक्य किसी को शायद जाहिर प्रतीत होता हो, मेरे जीवन-दर्शन में, जहाँ मैं अपने अध्यापकों और महापुरूषों के विचारों को बिना प्रश्न मूलमंत्र मानता था, एक झटकेदार अंतर है। इतिहास को जो मैं सत्य मानता था उसमें भी कितने प्रश्नचिन्ह लगे हैं ये जाना। यहाँ तक कि हम विश्वास के साथ ये भी नही कह सकते ही महात्मा गाँधी के अंतिम शब्द 'हे राम!' थे - इसमें भी राजनीतिक चालों की धोखेबाज़ी का आरोप है। और फिर सभी महापुरूषों के विचारों मे इतनी विभिन्नता देखी-पढ़ी है कि सच और झूठ भी आपस मे घुल-मिल गया है। जिंदगी काली-सफेद वाली सरलता से इतने रंगों में रंग कर भ्रामक हो गई है।
शायद जीवन के इन मूल्यों को समझना ही परिपक्वता है। मेरी माँ कहती है कि मैं पागल हो गया हूँ/होने वाला हूँ क्योंकि मैं अभी से ही बहुत ज्यादा सोचने लग गया हूँ।
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