आजकल पॉलिटिकल-करेक्टनेस (political correctness) का जमाना है। और जो मुझे जानते है वो ये भी जानते हैं कि मुझे यह शब्द और यह विचार हमारी सामन्य दिनचर्या में थोपा गया थोथलापन प्रतीत होता है। राजनेताओं से आपेक्षित यह बात आजकल हर किसी पर लागू होती है। मुझे सच को बिना घुमा-फिराकर कहने की आदत है। मुझे ये भी पता है कि सबके अनुसार सच अलग-अलग होते है, और मैं सबकी अपने अनुसार बिना गलत समझे जाने के डर के सच कहने की स्वतंत्रता में विश्वास रखता हूँ। पर जैसा सभी जानते है, आजकल वैसा संभव नही। आपको अपनी बातों में कईयों 'लेकिन-परंतु' लगाने पड़ते है और हर बात में ये ध्यान रखना पड़ता है कि ना जाने कोन से विचारावलंबियों को या समुदाय को आप नाराज़ ना कर दें। डर-डर के एक-एक शब्द बोलना या लिखना पड़ता है वरना सभी के प्रति सहनशीलता के ठेकेदार आपकी भावानाओं को किसी-ना-किसी के विरोधी करार देगें और आपको असहनशील घोषित कर देगें, भले ही आपने उस बारें में सोचा तक नही हो।
पिछले कुछ दिनों में मैं रिमी सेन के अफ़्रीकनों की सुंदरता पर दिये बयान और कभी अलविदा ना कहना में दर्शाई बेवफ़ाई पर हुई बहस का हिस्सा बना, और एक बात मैने देखी कि असहनशीलता अब नया रूप लेके प्रकट हो रही है। इस नए रूप के अनुसार आपको हर किसी के विचारों से सहमत होना पड़ेगा और पॉलिटिकली-करेक्ट विचार रखने पड़ेंगे। इन विचारों के लोग बहुत सहनशील होते है और जो व्यक्ति इनकी नज़रो में सहनशील नही होता वो व्यक्ति इन लोगों को सहन नही होता। विचारों की भिन्नता को स्वीकारना भूलकर हम सारी दुनिया को एक जैसा बना देना चाहते है - वैसा जिसमें कोई किसी बात पर प्रश्न ना उठा सके और किसी विचार से हटकर सोच ना सके। साथ ही मुझे डर है कि हम किसी बात को हल्का लेकर मज़ाक में उड़ाना भूलते जा रहें है। हम सहनशीलों की असहनशील भीड़ में बदलते जा रहें हैं।
इसी विषय पर एक और रुचिकर बात ये प्रतीत होती है कि हमारे समाज़ के पैमाने के अनुसार कुछ विचार या समूह किसी अन्य विचार या समूह से ज्यादा नाज़ुक होते है और आपकी सहनशीलता सिर्फ पहले समूह के लिये आकांक्षित है, दूसरे के लिये नही। स्त्री-पुरूष के बारे में कुछ बोलो तो लैगिंकवादी (sexism) पर बच्चे-बूढ़े के बारे में बोलो तो "उम्रवादी" (ageism) क्यों नही? काले-सफेद के बारे मे बोलो तो रंगभेद (racism) पर मोटे-पतले के बारे में बोलो तो "वज़नभेद" ("weightism") क्यों नही? हिन्दु-मुसलमान के बारे में बोलो तो धर्म के अनुसार भेद पर राजनेता या व्यापारी को गाली दो तो उद्यम के अनुसार भेद क्यों नही? मैं जरूरी नही इनमे से किसी भी बात का समर्थन करता हूँ, पर मुझे यह रुचिकर लगता है कि किस तरह एक समूह के लोगों का नाराज़ होना समाज को मंज़ूर है - बल्कि अपेक्षित है - और दूसरे समूह के लोगो का नाराज़ होना मंज़ूर नही, और किस तरह इतिहास इन विचारों के विकसित होने में भागी है।
इस प्रविष्टि की उपस्थिती से आप कुछ विषयों में मेरे पक्ष का अंदाजा लगा सकते हैं - और चूँकि ये पॉलिटिकल-करेक्टनेस का जमाना है - मुझे ये बताना जरूरी है कि किसी भी विचार को अनेक पहलुओं से देखने की मेरी आदत है और जरूरी नहीं कि मैं उनसे सहमत होऊँ, पर उन पहलुओं की उपस्तिथी ही उस विचार को रुचिकर बनाती है।
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