ये मन का मंथन है, विचारों का प्रवाह है, सोच की दिशा है...किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा हूँ...
हम इंसान, समाज, राष्ट्र और विश्व के रूप मे प्रतिदिन अपने लिये एक राह चुनते हैं, एक दिशा बनाते हैं, एक प्रयास करते है उस मार्ग की और जिस तरफ हम सब जाना चाहते हैं। यद्यपि हमें यह प्रतीत होता है कि मानवता विकास के विपरीत जा रही है, पर यह तो विकास की परिभाषा पर निर्भर करता है ना? प्रगति या पतन - जाने या अनजाने, समझे या बिना समझे, सहमति से या बल पूर्वक हम एक निर्णय लेते हैं जो हमारा भविष्य बनाता है। सर्वसंभव अपने अनुसार उपलब्ध ज्ञान और विश्लेषण के अनुसार हम उज्जवल भविष्य की कामना करते हुये एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प चुनते हैं। एक कदम और सही। पर उन्ही कदमों पर चलते-चलते क्या हम उस मंजिल की और बढ़ रहे हैं जो हमें स्वीकार नही? वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार लिये गये निर्णय क्यों हमें उस मार्ग की और ढकेलते हैं जिसकी मंजिल पर हम पहुँचना शायद नही चाहते? विकल्प भी क्या है: क्या सर्वश्रेष्ठ निर्णय लेना छोड़ दे, अगर हाँ तो फिर कैसे दिशा चुनें; या मंजिल को नियती मान कर स्वीकार कर लें?
विकास के कई मापन हैं और क्या मानवता के रूप में हम अभी पचास वर्षों पहले से ज्यादा सुखी हैं पर बहस अंतहीन। पर मैं विकास को ऐसे पारिभाषित करना चाहता हूँ: क्या आप पचास वर्ष पुरानी दुनिया में रहना पसंद करेंगे आज की बजाय? क्या हमारे पूर्वज उस समय की बजाय आज के समय में रहना पसंद करेंगें? यदि उत्तर "हाँ" में है तो हम पचास वर्ष पूर्व की तुलना में विकसित हैं। इस प्रविष्टी में विकास शब्द इसी अर्थ में उपयोग किया जायेगा। संसार के समस्त राष्ट्र इस पैमाने से विकास के अलग-अलग पगार पर खड़े हैं और इस लेख में उदाहरण विभिन्न देशों से दियें जायेंगे।
अमेरिका और यूरोप में पूँजीवाद (capitalism) का प्रभुत्व है। पूँजिवाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थक है। भारत में भी इस विचार के समर्थकों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, हालाँकि सामाजिक दायरे अभी भी जनता की स्वीकृत लिये हुए हैं। आजकल अमेरिका में समलैंगिक (homosexual) लोग विवाह की माँग कर रहें है और भारत में पहिचान की। बीस वर्ष पहले ये सोचना भी असंभव था पर आज ये सच्चाई है। और सभी बुद्धिजन इन माँगो का समर्थन करते हैं। नीदरलैंड, बेल्जियम, स्पेन, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा में समलैंगिक विवाह कानूनन है। समय के साथ ही भारत में जहाँ एक समय में परजाति विवाह की कल्पना भी नही की जा सकती थी वहाँ आज धर्मांतर विवाह सामान्य हैं या कुछ समय में हो जायेंगे। पचास सालों पहले अमेरिका में श्वेत और अश्वेत के बीच मिलाप अशोचनीय था और आज की स्थिती से हम सभी परिचित हैं। क्या यह कल्पना करना कि अगले सौ सालों में मानव और पशु का विवाह भी कानूनन हो जाये सपना होगा? यदि हम यहाँ दिये गये उदाहरणों पर नजर डालें तो ये असभ्य विचार भी असंभव नही लगता। एक-एक कदम सही राह पर चलते चलते हम उस मंजिल की और बढ़ रहें जो शायद हम नही चाहते...या कौन जाने शायद तब तक चाहने लगेंगे?
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्षपाती मानते हैं कि जब तक कोई किसी का नुकसान नही कर रहा हो तब तक समाज या सरकार को उसके खिलाफ नियम नही बनाने चाहिये। पर कभी यही नीति हमें ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करती है जिसके लिये हमारे पास कोई जवाब नही होता। दिसंबर २००२ में एक व्यक्ति नें अंतर्जाल के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को मारकर खाने (cannibalism) की इच्छा व्यक्त की और मरने के लिये स्वयंसेवक माँगे। एक अन्य व्यक्ति तैयार गया और पहले ने दूसरे को सहमति से मारकर खा लिया। हालाँकि अदालत ने पहले को हत्या की सजा सुनाई, मामले की उपस्थिती ने हमारे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विचार को ठेस पहुँचाई और कई प्रश्न उठाये। अभी तो ये एक विचित्र घटना मान के भूल सकते हैं पर ये बहुत संभव है कि इसी तरह के प्रश्न समाज के सामने बार-बार आएंगे आगे।
एक समय वैश्यावृत्ति समाज का अभिशाप कही जाती थी। कई जगह अभी भी यह स्थिती है पर जर्मनी, स्विटजरलैंड, ग्रीस, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और नीदरलैंड में यह कानूनन भी है। लोगों का नज़रिया भी परिवर्तित हो रहा है और वैश्याओं को नागरिक मानकर समाज की मुख्यधारा में लाने के प्रयास हैं। कुछ देशों में टी.वी. पर यौन सेवाओं का विज्ञापन दिखाना सामान्य बात है। सहिष्णुता और समता द्वारा दिशानिर्दिष्ट इन नीतियों ने समाज को उस दिशा में धकेल दिया है जहाँ जाना शायद उसका उद्देश्य नही था।
नीदरलैंड में बाल व्याभिचारी (pedophile) नागरिकों ने एक राजनैतिक पार्टी बना ली है जो कि यौन संबंध के लिये न्य़ूनतम आयु कम करना चाहती है तथा इस अपराध के लिये सजा कम करनें की पक्षधर है। इतने खुले समाज में भी ये सूचना नीदरलैंड के लोगों के लिये शर्मनाक है। पर समाचार की उपस्थिती ही एक नये युग की शुरूआत के चिन्ह हैं।
भारत सरकार के वन्य जीवों, विशेषकर शेर और चीते के, संरक्षण में असफल रहने पर कुछ लोग शेरों के समूह उत्पाद के विचार को प्रस्तावित कर रहें है जैसे अभी गाय-बकरियों का होता है। उनका तर्क है कि इस तरह चोरी से होने वाले शेरों के शारिरिक अंगो के व्यापार को कानून का जामा पहनाकर लोगों को शेर संरक्षित करने को उत्साहित किया जा सकता है। हो सकता है ये तरीका सही हो और एक जाति लुप्त होने से बच जाये, पर क्या हम हर जानवर को अपने वातावरण से निकाल कर सिर्फ खरीद-फरोख्त का सामान मानना चाहतें हैं, जबकि हम जानते हैं कि फैक्ट्रियों में होने वाले पशु पालन में कितनी क्रूरता होती है?
ये सभी समाचार मुझे सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या हम जिस दिशा की और बढ़ रहें वो सही है? पर हल भी तो समझ में नही आता क्योंकि अभी जो कर रहें हैं वह भी तो अपने हिसाब से सही कर रहें हैं। इसी से जुड़ा एक प्रश्न जिसका उत्तर मुझे आज तक नही मिला वो ये है कि क्या विकास की एक ही दिशा होती है? यदि हम यूरोप और अमेरिकन देशों को एशियन और अफ्रीकन देशों से विकसित मानें तो क्या ये संभव है कि सौ वर्ष के बाद जब विकासशील देश विकसित होंगे वे अभी के विकसित देशों से अलग हों? या फिर यह जरूरी है कि हम विकसित देशों के ऐतिहासिक पथ पर पीछे-पीछे चलते जाएं और उसी जगह पहुँचे जहाँ आज वो हैं? आजकल जो हो रहा है उस से ऐसा लगता है कि हमारी संस्कृति, राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य अमेरिका के मार्ग पर ही जा रहें हैं और हमारा विकास उनके विकास के रास्ते पर चल रहा है, मंजिल भी वही होगी फिर। निश्चित ही विकास के मापन - सभी को समता, सुख, सुरक्षा, आदि - समान हैं तो विकास के रास्ते में थोड़ा मिलाप संभव है, पर क्या कोई अलग रास्ता हो ही नही सकता? चीन और जापान जो कि भारत समान संस्कृति से अमेरिका समान संस्कृति की अग्रसर हैं वे तो यही बताते हैं कि विकास का मार्ग एक ही है।
इसका मतलब हम विकसित होकर भी उन्हीं समस्याओं - जैसे नैतिक पतन, लालच, व्यवसायीकरण, अकेलापन, स्वार्थ - में फँस जायेंगे जिनसे आज ये देश जूझ रहें है? उनसे बच के विकसित होना संभच नही क्या?
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