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एक लड़की के घर में घुसकर एक सिलसिलेवार हत्यारा (सीरियल किलर) उसकी बर्बरता से चेहरा काट कर दर्द और दशहत के साथ हत्या कर देता है। परंतु दूसरे दिन लड़की फिर जिन्दा हो जाती है हालांकि उसे पिछले दिन की दशहत याद रहती है। वो समझ नही पाती है और ये सोचती है कि शायद वो बुरा सपना हो। परंतु दूसरे दिन भी उसका यही हाल होता है...और इसी तरह रोज। चूँकि लड़की हत्यारे को पहचानती है और अंजाम से वाकिफ है वो उससे बचने की कोशिश करती है पर किसी ना किसी तरह (लड़की के परिवार और मित्रों की मदद से) भी हत्यारा उसका उसी तरह खून करने में सफल हो जाता है। पुलिस को बताने पर पता चलता है कि उस हत्यारे को पुलिस ने कई दिनों पहले मार गिराया था और वे उसे लड़की का पागलपन समझते है। अखबारों की जाँच करने पर वो अपनी हत्या का समाचार पढ़ती है कई दिन पुराने पत्रों में।
कहानी के अंत के चंद मिनटो में बताया जाता है कि वो लड़की वास्तव में वो हत्यारा ही है जो अब नर्क में है और उसे अब अनंत तक अपने धरती पर किये कुकृत्यों का फल भोगना पड़ेगा उसी दरिंदगी से रोज गुजरकर जिस तरह उसने मासूम लड़की का कत्ल किया था। अच्छी भली दुनिया को नर्क और हैवानियत के भोगी को हैवान दर्शाना मेरे लिये अनापेक्षित, और इसी लिये रोमांचक, अंत था।
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ये तो रही फिल्म की बात, पर एक प्रश्न मेरे दिमाग में टिक गया। क्या उस व्यक्ति को सजा देना न्यायिक है जिसे बिल्कुल भी याद नही रहा कि उसने पाप किया है? मैं यह नही कह रहा कि अपराध अनजाने में हुआ पर जान-बूझ के किये गये अपराध के बाद यदि अपराधी किसी भी कारणवश भूल जाये कि उसने अपराध किया है - ये दूर की बात कि क्यों किया है - तो क्या उसे सजा देना सही है? उसे तो यही लगेगा कि उस मासूम को सजा दी जा रही है। क्या उसके शरीर को प्रताड़ना देना अपराध का नियत प्रतिशोध है? मैं उन तथाकथित मानवतावादी लोगो की बात नही कर रहा हूँ जो सिद्ध अपराधी को भी सजा ना देने की माँग करते है। पर जो लोग खूँखार अपराध के लिये कड़ी सजा के पक्ष में हैं वे लोग इस बारे में क्या विचार रखते हैं?
यदि अपराधी भूल जाये कि उसने अपराध किया है तो क्या उसे सजा देना सही है?मैं अपने आपको दूसरी श्रेणी में गिनता हूँ और किसी सिद्ध दोषी को इसलिये भी सजा देने के पक्ष में हूँ कि कम से कम भोगी के परिवार वालों को सांत्वना मिलेगी, भले ही इस सजा से भविष्य के अन्य अपराधियों की अपराध करने न करने की प्रवृत्ति में अंतर आये या ना आये। यानि कि मेरे लिये प्रतिरोध सिद्धांत (Deterrence theory) की असफलता न्यायिक प्रणाली को नर्म करने के पक्ष में तर्क नही है। क्योंकि फाँसी पर चढ़ने वाला कम से कम ये तो जानता है कि वो किस करनी का परिणाम भुगत रहा है। पर जब वो ही नही जाने तो फिर तो सजा की न्यायिकता समझ में नही आती। सरल हल होगा कि उसे सजा ना दी जाये। पर क्या वास्तविकता में बलात्कारी के पागल हो जाने पर उसके जघन्य कृत्य को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है? क्या याद्दाश्त की समाप्ति अपराधी की प्राकृतिक मृत्यु समान मान लेनी चाहिये?