Saturday, November 4, 2006

मौत का नाटक

जीने के लिये कभी-कभी हमें मौत को भी अपनाना पड़ता है। ये बात इंसानो के लिये प्रत्यक्ष रूप से सही भले ही ना हो, कई जानवरों के लिये जीवन का हिस्सा है। विज्ञान पत्रिका "साइंस न्यूज़" में छपे एक लेख के अनुसार कई प्रजातियाँ भक्षण से बचने के लिये हिंसक जीव के समीप आते ही मौत की चादर औढ़ कर मृत होने का नाटक करने लगतीं हैं। माना जाता है कि शिकारी जानवर को जीवित शिकार में जो मज़ा आता है वो तैयार मिले शिकार में नहीं। क्या शिकारी जानवर इतना बेवकूफ़ हो सकता है कि मौत और मौत के नाटक में अंतर ना बता सके? कुछ वैज्ञानिक इसे शिकार करने के शौक के रूप में समझाते हैं तो कुछ मानते है कि जब अनेक शिकार हों तो शिकारी एक जानवर की मृत्यु की सच्चाई परखने में समय व्यर्थ नही करना चाहता। जब एक परीक्षक ने मृत प्रतीत होगनोज़ को पलट के सीधा किया तो उसने फिर से पेट के बल पलट कर अपने जीवित होने का सबूत दे दिया।

हालांकि ये मृत्यु का आवरण अभी छोटे जानवरों में ही देखा गया है पर ये कई प्रजातियों और जीवों में पाया जाता है। छोटी चिड़ियाँओं, साँपों, मछलियों और कीड़ों, सभी में किसी ना किसी रूप में यह पृवत्ति पाई गई है। होगनोज़ नामाक प्रजाति का साँप अपने भक्षक को देख अपने पेट के बल पलट जाता है और मुँह खोल कर खून की बूँदे टपकाने लगता है। यहाँ तक ये साँप सड़ाँध वाली गंध भी छोड़ता है जो कि शिकारी जानवर के खाने के मज़ा खराब कर देती है। इन सबके बावज़ूद जीववैज्ञानिकों ने पाया कि साँप अपने आसपास के वातावरण से भिज्ञ है और नजरें पलटते से ही हिलने लगता है।

शायद यही जीवजगत की विविधता है कि इतना नाटक करने वाला साँप बुद्धि से थोड़ा कमजोर है। जब एक परीक्षक ने मृत प्रतीत होगनोज़ को पलट के सीधा किया तो उसने फिर से पेट के बल पलट कर अपने जीवित होने का सबूत दे दिया। शायद उसके दिमाग में मरने का नाटक मतलब पेट के बल पलट कर स्थिर हो जाना भरा था, स्थिर बने रहना नही। पर यूरोप के घाँस के मैदानों में पाये जाने वाले साँप इस मामले में ज्यादा समझदार हैं। उनको जब पलटा गया तो भी वे नही हिले।

क्या यह व्यवहार जानवर के जीन्स में होता है? क्या ये उन्हें जीवित रहने में मदद करता है? क्या मौत का नाटक हमेशा मौत से बचने के लिये ही किया जाता है? वैज्ञानिक कई प्रश्नों के साथ इस पृवत्ति को समझने की कोशिश कर रहें है परंतु जीवों के प्रति अन्याय के विरूद्ध नियम-कायदे कुछ महत्वपूर्ण प्रयोग करने के रास्ते में बाधा बन जाते हैं। वर्षों पुराने प्रयोगों से, जब इन कानूनो का जन्म नही हुआ था, वैज्ञानिको ने ये लगभग निश्कर्ष निकाला है कि वास्तव में ये पृवत्ति जीन्स में पायी जाती है और कुछ हद तक शिकारी जानवर के पंजे में आने के बाद जीवित होने की संभावना में वृद्धि करती है। जब एक बिल्ली के पिंजरे में क्विल नामक चिड़ियाँयें छोड़ी गयी तो देखा गया की जैसे ही एक चिड़िया मरने का नाटक करती है बिल्ली उसे छोड़कर दूसरी चिड़िया के पीछे भागने लगती है।

पर यह नही कि मृत शरीर हमेशा शिकार से बचने के ही काम आता है क्योंकि शिकार को तैयार भोजन में मजा नही। जापानी जीवविज्ञानिकों ने एक प्रयोग में मकड़ियों, कीड़ो और मेंढ़कों को टिड्डे खाने के लिये दिये। कथित रूप से जानवरों के प्रति अन्याय के विरोध के नियम कीड़ों पर नहीं लागू होते। इनमे से सिर्फ मेंढ़क ही टिड्डे को निगल कर खाता है और इसी अवस्था में वैज्ञानिको नें देखा कि टिड्डा मेंढ़क के मुँह में जाकर अपने शरीर को अकड़ लेता है। क्यों? कारण यह कि यद्यपि टिड्डा पहले ही अपने भक्षक के मुँह में है, अकड़ने से उसके उगलने में कठनाई और इसीलिये जीवित रहने की संभावना दोनो बढ़ जाई है।

समुद्र की एक मछली की प्रजाति मृत ढोंग बिल्कुल उल्टे कारणों से रचती है। पंद्रह-बीस मिनट तक मृत मछली अपने आस-पास की छोटी मछलियों की हिम्मत बढ़ा देती है यहाँ तक कि छोटी मछलियाँ निश्चल मछली के शरीर को कुतरना तक चालू कर देती है। और फिर मौका देखते से ही मरने का नाटक कर रही मछली जाग उठती है और एक दबोचे में ही...।

है ना दुनिया गजब की?

(संपूर्ण जानकारी विज्ञान समाचार के इस लेख से ली गई है।)

Saturday, October 21, 2006

हफ्ते की चुटकियाँ

ये प्रविष्टी नये इंटर्नेट एक्सप्लोरर (Internet Explorer) में लिख रहाँ हूँ। हालांकि मैं फायरफोक्स (Firefox) का दीवाना हूँ पर नया आई. ई. (IE) अभी तो बढ़िया लग रहा है, विशेषकर ये क्लीयर टाईप फॉन्ट (Clear Type Font)! मेरी चिठ्ठाकारी में काफी ढिलाई आ गई है, पर कारण कुछ खास नही, शायद चिठ्ठे का भूत उतर गया हो! वैसे चिठ्ठा तो चलता रहेगा, प्रविष्टियों की आवृत्ति की कह नही सकता। इन्हीं बातों में दीवाली की शुभकामनाऐं देना तो भूल ही गया, तो बंधुओं दीपावली और नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाऐं स्वीकार करें और सुरक्षित दीवाली मनायें। अब पिछले कुछ दिनो की रूचिकर खबरे पेश कर रहा हूँ।

राजस्थान में एक गाँव में एक मादा कोबरा ने नर कोबरा के दाह संस्कार में कूद के अपनी जान दे दी तो आशानुरूप लोगों ने उसे सती मान लिया और शुरू हो गई पूजा। पर परेशानी यह है कि लोग अब वहाँ मंदिर बनवाना चाहते हैं और एक अकेली विधवा को बेघर करने के प्रयास जारी है। लो भाई, मृत साँपो के लिये मंदिर बनवाना जरूरी है, जीवित इंसानो के लिये घर बनवाना नही। कौन सी नई बात है? [कड़ी]

टाईम्स ऑफ इंडिया (Times of India) के जग सुरैया ने भारतीयों को विदेश में पेश आनी वाली सबसे बड़ी और सतत समस्या को जाहिर किया है। सभ्यताओं की टक्कर की बजाय उनका मानना है की बात तो सिर्फ पूँछ्ने और धोने की है। [कड़ी]

और ये तो शायद अपनी तरह की पहली ही खबर है। कितने लोग प्यार अथवा अन्य कारणों से बच्चों को गोद लेते है, पर ये लोग तो उल्टा करने पर उतारू हैं! बच्चे का गोद लेना रद्द करने का खयाल आया है छ: साल बाद। पूरी कहानी पढ़ेगे तो पता चलेगा कि उनकी भी मजबूरी है, इसलिये ऐसा कदम उठाना पड़ रहा है। भारत में तो लोग गोदजाये को फैंक देते है, क्या तुलना करना...[कड़ी]

जो लोग कुछ समय भी समाचार आदि पढ़ते हैं वे गाहे-बगाहे इस निष्कर्ष पर स्वतः ही पहुँच जाते हैं कि विशेषज्ञ कोई ऊँची हस्ती नही होता। सारे संपादकीय और विशेषज्ञों की राय ना ही विषयवस्तु पर सामान्य शिक्षित व्यक्ति से ज्यादा प्रकाश डाल पाती है ना ही उनकी भविष्यवाणी की सच होने की संभावना किसी सड़क चलते व्यक्ति से अधिक होती है। न्यू योर्कर (New Yorker) में प्रकाशित इस लेख में लेखक नें लगभग यही कहा है सिवाय उसने कुछ शोधों के माध्यम से अपनी बात सिद्ध करने की कोशिश की है। कहानी का मूल? अपनी राय खुद बनाओ। [कड़ी]

Friday, September 29, 2006

सजा पापी को या पापी के शरीर को?

कुछ दिनों पहले एक बहुत ही अच्छी अंग्रेजी डरावनी फिल्म देखी। "सालवेज़" (Salvage) नामक ये कम बज़ट की स्वतंत्र फिल्म मुझे अंग्रेजी की बेहतरीन डरावनी फिल्मों "द रिंग" (The Ring) और "द ब्लैर विच प्रोजेक्ट" (The Blair Witch Project) के समान ही रोमांचक और डरावनी लगी। कहानी एक लड़की की है जिसकी रोज हत्या होती है और जिसे डर-डर के जीना पड़ता है। आगे दो अनुच्छेदों में कहानी का भेद खोलने वाला हूँ सो चाहें तो इन्हें कूद जायें

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एक लड़की के घर में घुसकर एक सिलसिलेवार हत्यारा (सीरियल किलर) उसकी बर्बरता से चेहरा काट कर दर्द और दशहत के साथ हत्या कर देता है। परंतु दूसरे दिन लड़की फिर जिन्दा हो जाती है हालांकि उसे पिछले दिन की दशहत याद रहती है। वो समझ नही पाती है और ये सोचती है कि शायद वो बुरा सपना हो। परंतु दूसरे दिन भी उसका यही हाल होता है...और इसी तरह रोज। चूँकि लड़की हत्यारे को पहचानती है और अंजाम से वाकिफ है वो उससे बचने की कोशिश करती है पर किसी ना किसी तरह (लड़की के परिवार और मित्रों की मदद से) भी हत्यारा उसका उसी तरह खून करने में सफल हो जाता है। पुलिस को बताने पर पता चलता है कि उस हत्यारे को पुलिस ने कई दिनों पहले मार गिराया था और वे उसे लड़की का पागलपन समझते है। अखबारों की जाँच करने पर वो अपनी हत्या का समाचार पढ़ती है कई दिन पुराने पत्रों में।
कहानी के अंत के चंद मिनटो में बताया जाता है कि वो लड़की वास्तव में वो हत्यारा ही है जो अब नर्क में है और उसे अब अनंत तक अपने धरती पर किये कुकृत्यों का फल भोगना पड़ेगा उसी दरिंदगी से रोज गुजरकर जिस तरह उसने मासूम लड़की का कत्ल किया था। अच्छी भली दुनिया को नर्क और हैवानियत के भोगी को हैवान दर्शाना मेरे लिये अनापेक्षित, और इसी लिये रोमांचक, अंत था।

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ये तो रही फिल्म की बात, पर एक प्रश्न मेरे दिमाग में टिक गया। क्या उस व्यक्ति को सजा देना न्यायिक है जिसे बिल्कुल भी याद नही रहा कि उसने पाप किया है? मैं यह नही कह रहा कि अपराध अनजाने में हुआ पर जान-बूझ के किये गये अपराध के बाद यदि अपराधी किसी भी कारणवश भूल जाये कि उसने अपराध किया है - ये दूर की बात कि क्यों किया है - तो क्या उसे सजा देना सही है? उसे तो यही लगेगा कि उस मासूम को सजा दी जा रही है। क्या उसके शरीर को प्रताड़ना देना अपराध का नियत प्रतिशोध है? मैं उन तथाकथित मानवतावादी लोगो की बात नही कर रहा हूँ जो सिद्ध अपराधी को भी सजा ना देने की माँग करते है। पर जो लोग खूँखार अपराध के लिये कड़ी सजा के पक्ष में हैं वे लोग इस बारे में क्या विचार रखते हैं?

यदि अपराधी भूल जाये कि उसने अपराध किया है तो क्या उसे सजा देना सही है?मैं अपने आपको दूसरी श्रेणी में गिनता हूँ और किसी सिद्ध दोषी को इसलिये भी सजा देने के पक्ष में हूँ कि कम से कम भोगी के परिवार वालों को सांत्वना मिलेगी, भले ही इस सजा से भविष्य के अन्य अपराधियों की अपराध करने न करने की प्रवृत्ति में अंतर आये या ना आये। यानि कि मेरे लिये प्रतिरोध सिद्धांत (Deterrence theory) की असफलता न्यायिक प्रणाली को नर्म करने के पक्ष में तर्क नही है। क्योंकि फाँसी पर चढ़ने वाला कम से कम ये तो जानता है कि वो किस करनी का परिणाम भुगत रहा है। पर जब वो ही नही जाने तो फिर तो सजा की न्यायिकता समझ में नही आती। सरल हल होगा कि उसे सजा ना दी जाये। पर क्या वास्तविकता में बलात्कारी के पागल हो जाने पर उसके जघन्य कृत्य को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है? क्या याद्दाश्त की समाप्ति अपराधी की प्राकृतिक मृत्यु समान मान लेनी चाहिये?

Saturday, September 23, 2006

हिन्दी दिवस का रोना-धोना

कुछ दिनो पहले हिन्दी दिवस था। बचपन में ये दिन सिर्फ इसलिये याद आता था कि मैरे पापा, जो कि बैंक में काम करते हैं, को बैंक के आला अफसरों से ये फरमान आ जाता था कि हिन्दी में बैंक की कार्यवाही प्रोत्साहित की जाये। और हमेशा लगी हुई धूलसरित लकड़ी की पट्टियाँ को, जो की हिन्दी में घोषित करती हैं कि "यहाँ हिन्दी में लिखे और हस्ताक्षकर किये हुए चैक और फॉर्म स्वीवार किये जाते हैं", सालाना झाड़-पोंछ नसीब हो जाती थी। कभी-कबार हिन्दी की एक किताब भी बाँट दी जाती है। जब समझदारी बढ़ी तो हिन्दी दिवस पर कवियों को हिन्दी की दुर्गति गाते हुए भी सुना।कौन माँ चाहेगी कि उसकी कीर्ती के लिये उसकी संतान का हनन किया जाये?

मेरा परिवार सभी साधारण परिवारों की तरह हिन्दी से उतना ही करीब है जितना जरूरत है। ना कभी विशेष दर्जा दिया गया हिन्दी को ना ही अंग्रेजी को। जो बोलते हैं वही बिना सोचे बोल देते है। कुछ ऐसे ही विचारों और व्यक्तिगत सोच ने गत कुछ वर्षों से हिन्दी के प्रति मेरे विशेषाभाव को बढ़ने-घटने ना दिया। मेरा यह मतलब नही कि मुझे हिन्दी पसंद नही, मेरा मतलब है कि कभी हिन्दी को लुप्त होती भाषा की तरह सोचा नही। और शायद इसी कारण मुझे हिन्दी दिवस और हिन्दी के घटते उपयोग पर विशेष सुख या दुःख नही होता।

ना ही मेरा इस चिठ्ठे को लिखने के प्रति उद्देश्य है मेरा हिन्दी प्रेम। मुझे हिन्दी लिपि और भाषा अच्छी लगती और बोलने/लिखने में शर्म नही सो लिखता हूँ। नारद द्वारा पाठको की प्रस्तुति भी एक कारण है। पर फिर भी जिसे जो अच्छा लगे वो बोले मुझे उसमें भी आपत्ति नही। ना ही अपनी तरफ से किसी पर हिन्दी थोपने का पक्षपाती हूँ ना ही हिन्दी छोड़ने का। समय के साथ भाषा का जैसा विकास होगा देखा जायेगा। चूँकि हिन्दी मेरी मातृभाषा है इसलिये इसपर मेरी पकड़ अन्य भाषाओं से बेहतर है और बस यही कारण है कि इसका उपयोग जारी है।

मैं भाषा के स्वतः विकास का समर्थक हूँ। अगर किसी समय हिन्दी की बजाय अन्य भाषा प्रचलित हो जाती है तो जबरजस्ती हिन्दी पढ़ाने का ना मैं शौकीन हूँ ना यह कारगर तरीका है। भाषा विचारों का माध्यम है और कुछ नही (कम से कम सामान्य लोगों के लिये तो)। मेरे महाविद्यालय में एक समूह संस्कृत भाषा के विस्तार में कटिबद्ध था और गावों में स्थानीय तमिल की जगह संस्कृत का उपयोग प्रचलित करने के प्रयास करता था। मुझे उनके प्रयास समय और साधनो की व्यर्थतता ही लगे। भारतीय भाषायें मूलतः संस्कृत की संतति हैं। कौन माँ चाहेगी कि उसकी कीर्ती के लिये उसकी संतान का हनन किया जाये?

ये तो रही हिन्दी की दुर्गति की मेरा नज़रिया। पर मेरे अनुसार धरातल पर हालात इतने बिगड़े नही जितने बताये जाते हैं। हाँ लोग हिन्दी की बजाय अंग्रेजी में शिक्षा ग्रहण कर रहें है पर क्या वे हिन्दी भूल रहे हैं? नवपीढ़ी की नवभाषा अगर कुछ चिन्ह है तो उत्तर होगा नही। पर वे हिन्दी को बदल जरूर रहे हैं। अंग्रेजी, मराठी, पंजाबी, तमिल, आदि भाषाऐं हिन्दी से मिलकर नही हिन्दी बना रही है। जैसा कि पहले उर्दु और फ़ारसी ने किया था। हमे यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ४०% निरक्षर भारत अभी भी हिन्दी (या स्थानीय भाषा) बोलता सुनता है। साक्षर जन का बड़ा हिस्सा हिन्दी में पढ़ता भी है।

क्या हिन्दी लुप्त हो जायेगी? शायद, पर सौ सालों तक तो नही। अगर हो भी जाये तो क्या इतिहास को दबोचे रहना उचित होगा? क्या हिन्दी परिवर्तित हो जायेगी? निश्चित ही। प्रति क्षण हिन्दी बदल रही। पर यही तो भाषा की परिपक्वता और विकास है। उससे क्या डरना? फिर क्यों हिन्दी दिवस मनाना या हिन्दी की घटती लोकप्रियता पर रोना?

Friday, September 8, 2006

देशी चीते की दहाड़

भारतीय ब्रांड इक्विटी (brand equity) संस्था द्वारा विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिये जारी किया गया विडीयो:



हालांकि भारत-चीन की ऐसी खबरें तो खासी आम हैं और विडीयो भी कुछ नया नही दिखाता है पर बनाया अच्छा है। कुछ ऐसा ही नीचे वाला भी विडीयो भी है। ये ए. बी. सी. न्यूज़ वालों ने बनाया था और थोड़ा सामान्य है पहले की तुलना में।

Thursday, September 7, 2006

भगवान के नाम पर मत दो

शायद आपको ये पहले से ही पता हो कि कई भिखारी भीख माँग के इतना पैसा बना लेते हैं कि शान की जिंदगी जीते हैं। बंबई के समाचार पत्र मिड-डे में छपी खबर के अनुसार जब कुछ स्वयं-सेवी संस्थानों ने भिखारिओं को नौकरी की पेशकश की तो कईयों ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। कारण? जो व्यक्ति भीख माँगकर दैनिक सैकड़ों कमाता हो वो क्यों चंद हजारों के लिये महिना भर मेहनत करेगा?

बचपन में सुना करते थे ऐसे भिखारिओं के बारें में जो दुपहिया वाहन में स्तरीय कपड़े पहन के भीख माँगने जाते हैं और वहाँ जाकर अपना हुलिया दयनीय बना लेते हैं। प्रसिद्ध मंदिरों/मस्जिदों के बाहर और विदेशी पर्यटकों के विचरण स्थान पर कुछ इलाकों में काम करने वाले भिक्षुक भी कई मध्यम या निम्न-मध्यम वर्गीय मेहनतकारों से अधिक संपन्न होते है। और ऐसे इलाके इनके विवाह में दहेज मे लिये-दिये भी जाते है और गुन्डागर्दी से छीने भी।

ये भिखारी हमें भीख देने से मिलने वाली शांति और दूसरों का भला कर परलोक में अपना स्थान पक्का करने का टिकट बेचते हैं।ऐसा निश्चित ही है कि सभी भिखारियों की हालत ऐसी नही। हम सर्दी-गर्मी और भूख से मरने वालों की खबर भी आये-बगाहे सुनते ही रहते हैं। पर कितने भिखारी काम की अनुपस्थिती में भीख माँगते हौ और कितने काम से जी चुराने के लिये इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। विशेषकर महानगरों में दूसरी श्रेणी के याचकों की संभावना ज्यादा प्रतीत होती है। यद्यपि मैं यूँ भी भीख देने पक्षधर नही नही हूँ, उन लोगों को अपनी मेहनत के पैसे देना जो काम नही करना चाहते और भी कड़वा लगता है।

एक पक्ष यह भी उठाया जा सकता है कि भिखारी भीख नहीं माँगते बल्कि उसी प्रकार उद्यम करते हैं जैसे ऊटपटाँग वस्तुओं के विक्रेता, झूठ बोलकर सामान बेचने वाली कंपनी के प्रबंधक, नीम-हकीम इत्यादि करते हैं। ये भिखारी हमें भीख देने से मिलने वाली शांति और दूसरों का भला कर परलोक में अपना स्थान पक्का करने का टिकट बेचते हैं। काम भले ही गलत हो पर क्या हमने किसी चपल विक्रेता से ऐसी वस्तु नही खरीदी जिसका कोई उपयोग नही था?

ये नई बात नही कि कुछ लोग हमारी इंसानियत का फायदा उठाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं, नयी बात यह है कि जो भीख की जिंदगी त्यागकर मेहनत करके सम्मान की जिंदगी जीते है हमे उनका आदर करना चाहिये। अब जब भी किसी नौकर, चौकीदार, कामवाली या ठेलेवाले को देखूँगा तो ये याद रखूँगा कि ये शायद कम पगार में ज्यादा मेहनत का काम सिर्फ इसीलिये कर रहे हैं कि उन्हें इज्जत मिले, और वो इज्जत देना मेरी भी जिम्मेदारी है।

देश हमें देता है सबकुछ

अगर वंदे-मातरम्‌ की "ओवर-डोज़" नही हुई हो तो ये वाला भी सुन लीजीये! वंदे-मातरम् पॉप संगीत:

कभी खुशी कभी गम

वंदे मातरम्‌ के ऐतिहासिक विकास के इच्छुक ये लेख पढ़ सकते हैं। और इस पन्ने पर अलग-अलग स्त्रोतों से वंदे-मातरम्‌ की कड़ियाँ दी गयी हैं। वंदे-मातरम्‌ गीतगान के साथ ही उसके असली अर्थ को समझना भी हमारा कर्तव्य है क्योंकि:

देश हमे देता है सबकुछ - २
हम भी तो कुछ देना सीखें - २ ॥२॥

सूरज हमें रोशनी देता
हवा नया जीवन देती है ॥२॥
भूख मिटाने को हम सबकी
धरती पर होती खेती है ॥२॥
औरों का भी हित हो जिसमें - २
हम ऐसा भी कुछ करना सीखें -२

देश हमे देता है सबकुछ - २
हम भी तो कुछ देना सीखें - २

पथिकों को तपती दोपहर में
पेड़ सदा देते हैं छाया ॥२॥
सुमन सुगंध सदा देते हैं
हम सबकों फूलों की माला ॥२॥
त्यागी तरूणों के जीवन से - २
हम परहित कुछ करना सीखें - २

देश हमे देता है सबकुछ - २
हम भी तो कुछ देना सीखें - २

जो अनपढ़ हैं उन्हें पढ़ाऐं
जो चुप हैं उनको वाणी दें ॥२॥
पिछड़ गयें जो उन्हें बढ़ाऐं
प्यासी धरती को पानी दें ॥२॥
हम मेहनत के दीप जलाकर - २
नया ऊजाला करना सीखें - २

देश हमे देता है सबकुछ - २
हम भी तो कुछ देना सीखें - २


Desh Hame Deta He ...


(ये गीत यहाँ से से डाऊनलोड करें)

Wednesday, September 6, 2006

छोटी सी बात

Cute picture of child

मैं तुम्हारे पाँव पकड़ता हूँ...मेरा दिमाग मत खाओ

Tuesday, September 5, 2006

दैनिक जागरण ने बाजी मारी, भास्कर दूसरे स्थान पर

राष्ट्रीय पाठक अध्यन समिति (National Readership Studies Council) ने राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण (National Readership Survey, NRS) २००६ के मुख्य बिन्दू प्रस्तुत किये हैं जिनमें से कुछ रोचक तथ्य:


  • शहरी और ग्रामीण इलाको में पाठकों की संख्या लगभग बराबर - क्रमशः ४५% व १९% जनसंख्या में पैंठ

  • साक्षरता में हल्की सी बड़ोतरी - १.२ शुद्ध प्रतिशत[]

  • रेडिओ माध्यम में सर्वाधिक वृद्धि - ४ शुद्ध प्रतिशत

  • नियमित सिनेमा जाने वाले व्यक्तिओं की संख्या में तीव्र कमी (यद्यपि शहरों मे बढ़ोतरी) - पिछले वर्षों की तरह

  • मोबाईल उपकरणों में विशेष शुल्कयुक्त सुविधाओं के उपयोग में वृद्धि - १.६ शुद्ध प्रतिशत

  • अंतर्जाल उपयोगकर्ताओं की संख्या में नियमित वृद्धि परंतु ग्रामीण भारत पिछड़ा

  • भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में तीव्र बढ़ोतरी, अंग्रेजी भाषी पाठक आधार स्थिर

  • दैनिक जागरण २.१२ करोड़ और दैनिक भास्कर २.१ करोड़ के साथ दौड़ मे आगे

  • टाईम्स ऑफ़ इंडिया ७४ लाख, द हिन्दु ४० लाख, व हिन्दुस्तान टाईम्स ३८ लाख के साथ अंग्रेजी भाषी दौड़ में आगे

  • हिन्दी पत्रिकाओं में सरस-सरिल और ग्रहशोभा ७१ व ३८ लाख पाठक संख्या के साथ क्रमशः पहले और दूसरे स्थान पर


५ करोड़ सुविधा संपन्न हिन्दीभाषी कोई पत्र-पत्रिका नही पढ़ते - क्यों?
३५ करोड़ साक्षर लोग कोई पत्र-पत्रिका नही पढ़ते - कौन जिम्मेदार? समय, पैसा, विषय वस्तु या आदत?

कुल मिलाकर हल्की सी उन्नति पर ज्यादा खुशी की बात नही।
(समस्त सांख्यिकी उपरोक्त लेख की मेरी व्याख्या पर आधारित, ऋटि क्षमा)

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[]↑ यदि १०० में से किसी संख्या की वृद्धि २० से ३० होती है तो वृद्धि (३०*१००/१००)-(२०*१००/१००)=१० शुद्ध प्रतिशत होती है। सामान्य प्रतिशत के माप में ये वृद्धि ((३०-२०)*१००)/२०=५० प्रतिशत है। किसी को सरल नाम अथवा वर्णन आये तो बताईयेगा।

Sunday, September 3, 2006

चंदामामा दूर के - बालसाहित्य की यादें

बातों-बातों में पता ही नही चला कि इस जुलाई को चंदामामा पत्रिका ने साठ वर्ष पूरे कर लिये हैं। रीडिफ़ पे पत्रिका के संस्थापन और समय के साथ हुए परिवर्तनों पर अच्छा लेख हैउस समय शायद तीन या पाँच रूपये की आती है थी चंपक, और बिना नागा पापा हर पखवाड़े ला देते थे।

बचपन की किताबें सभी को ही बहुत प्रिय होती हैं क्योंकि उन किताबों के साथ उन दिनों की यादें, भावनाऐं, कल्पनाऐं और उत्साह जुड़ा रहता है। फिर मुझे तो शुरू से ही पढ़ने का जरूरत से ज्यादा ही शौक था और अभी भी बरकरार है। शुरूआत चंपक से हुई थी शायद। उससे पहले किसी पुस्तक का नाम यादों के धुंधलके में नही आता। उस समय शायद तीन या पाँच रूपये की आती है थी चंपक, और बिना नागा पापा हर पखवाड़े ला देते थे। अभी भी चंपको के ढेर दिमाग के किसी कोने से झलक पड़ते हैं। फिर नन्हें सम्राट आई, दस बरस का रहा होंऊगा तब। धीरे-धीरे चीकू खरगोश और मीकू बंदर की कहानिओं से बोर हो गया तो फिर बालहंस और नंदन जैसी पत्रिकाओं ने जीवन में प्रवेश किया। नंदन बहुत बेकार लगती थी, हर बार वही राजा-रानी-ऋषी की कहानी, नन्हें सम्राट विशेष प्रिय थी जेम्स बॉन्ड के कारण! उसी वर्ष मैं एक छोटे से गाँव से हटकर ग्वालियर (मध्य प्रदेश) रहने लगा पापा के स्थानांतरण के कारण। ग्वालियर में पहली बार, और शायद आखिरी बार, मेरा सरकारी पुस्तकालय से परिचय हुआ। मानो की खज़ाना मिल गया।

ट्विंकल और अन्य नियमित पत्रिकाओं से वहीं परिचय हुआ। अभी तो नाम भी नहीं याद आते यद्यपि कोई बोले तो तुरंत एम मुस्कुराहट आ जाती है। मुझे अभी भी याद है कि पुस्तकालय में हँसी मना होने के कारण कितनी बार दाँत दबा के और मुँह ठूँस के हँसना पड़ता था। मेरी कई शामें माँ के निर्देश के विरूद्ध वहाँ देर तक बैठे कटी। यहाँ तक की जब मुझे अपने छोटे भाई को अपने साथ ले जाने को कहा गया तो मुझे बहुत बुरा लगता था क्योंकि वो थोड़ी देर में पढ़कर बोर हो जाता था और फिर मुझे उसे छोड़ने के लिये अपनी पढ़ाई छोड़कर घर आना पड़ता था। बालपुस्तकालय में कुछ नियम था ऐसा कि बारह से कम उम्र के बच्चे ही वहाँ सदस्य बन सकते हैं जबकि बड़ों को व्यस्कों के पुस्तकालय में जाना होता जहाँ अखबारों के अलावा कुछ भी नही था! कुछेक घोटाला कर के सदस्य तो बना ही रहा थोड़े दिनों। उन दिनों की, विशेषकर उस पुस्तकालय की याद मेरी जिंदगी का प्रिय हिस्सा है। ग्वालियर से जाने के बाद मुझे आज तक कोई ऐसा पुस्तकालय नही मिला कोटा (राजस्थान) में और फिर पढ़ाई की अन्य जिम्मेदारियाँ भी बढ़ गई।

अपनी उम्र के लोगों से जब बाल साहित्य के वर्णन सुनता हूँ तो हमेशा पाता हूँ कि अमर चित्र कथाऐं मेरी पठन श्रंखला में नही थी जबकि लगभग बाकी सब की में थी। शायद उस इलाके में ज्यादा प्रसिद्ध नही हो।

कोमिक्सों के मामलें में मैं अपने को धन्य ही मानता हूँ। मेरे बुआ के लड़के की कोमिक्स किराये पे देने की दुकान थी और मेरा गर्मिओं में बुआ के यहाँ जाने का एकमात्र उद्देश्य यही होता था कि दिन भर कोमिक्स पढ़ता रहूँ। वास्तव में मेरे अभी रिश्तेदार परेशान थे इस आदत से। नाना जी के यहाँ जाऊँ या बुआ के यहाँ, जहाँ किताबें मिले वहाँ बस यही काम। संगी-साथी और छोटे भाई-बहन खेलने को तरस जाते और मैं होता कि सोना खाना भूल कर एक ही काम। जहाँ किताब नही मिलती वहाँ हिंदी की पाठ्‍य-पुस्तक ही पकड़ लेता।

चौदह-पंद्रह साल तक सरिता, गृहशोभा, मनोरमा जैसी वयस्क पारिवारिक पत्रिकाऐं और फिर मनोहर कहानियाँ जैसी अपराध कथाऐं वाली पुस्तक भी सूची में शामिल हुईं। अब तक बचपन शायद छूट सा गया था और ये भी समझ में आ गया था कि लोगों को समय देना जरूरी है व किताबें रूक सकती हैं। पिछले कई वर्षों से इनमें से एक भी किताब हाथ में नही आई, पर मन करता है कि चंदामामा या ट्विंकल मिले तो पढ़ने के उत्साह में कमी नही होगी।

मेरी अंग्रेजी की किताबों का सफर चालू हुआ महाविद्यालय के द्वितीय वर्ष में टिनटिन से, पर वो फिर कभी और...

Saturday, September 2, 2006

दादागिरी

अमेरिकन जहाजी बेड़े की कनाडियन तट अधिकारियों से संपर्क की घटना:

अमेरिकन: टक्कर से बचने के लिये अपना रास्ता १५ डिग्री उत्तर की और मौड़ें।
कनाडियन: ये बेहतर होगा कि आप अपना रास्ता १५ डिग्री दक्षिण की और मौड़ें।
अमेरिकन: ये अमेरिकन जल सेना का कप्तान बोल रहा है। मै कहता हूँ, आप अपना रास्ता मौड़ें।
कनाडियन: नही, मैं फिर से कहता हूँ आप अपना रास्ता मौड़ें।
अमेरिकन: आप नही जानते मैं कौन हूँ। मैं अमेरिका के दूसरे सबसे बड़े जहाज यू. एस. एस. लिंकन का कप्तान हूँ। हमारे पास तीन लड़ाकू विमान, तीन पनडुब्बियाँ और कई अन्य हथियार और वाहन हैं। मैं आज्ञा देता हूँ कि आप अपना रास्ता १५ डिग्री उत्तर की और मौड़ लें अन्यथा इस जहाज की सुरक्षा हेतु जवाबी कार्यवाही की जा सकती है। परिणाम भुगतने के लिये तैयार रहें।
कनाडियन: ये लाईट हाउस है। बाकी आपकी मर्जी।

Thursday, August 31, 2006

पायलट कॉकपिट के बाहर फँसा

क्या ऐसा संभव है कि मौत सामने खड़ी हो पर आप हँसी रोक ना सकें? शायद ऐसी ही कुछ अवस्था हुई होगी एयर कनाडा के ओट्टावा से विनिपेग जाते यात्रियों के साथ जब मंजिल से बीस मिनिट शेष रहते उनके पालयट जी को "गाना गाने" की जरूरत पड़ी। "काम" तो सीधा सा ही था पर काम के बाद बीच हवा में कॉकपिट का दरवाजा बंद हो गया। मतलब कि कॉकपिट में उपपायलट और एक परिचारिका तो थे पर दरवाजा ना जाने कैसे फँस गया। पायलट साहब दस मिनिट तक दरवाजा ठोकते रहे पर केबिन का दरवाजा टस से मस ना हुआ। अंत में यात्रियों की मदद से दरवाजे को ही हिंजों से ही हटाया गया और सभी ने चैन की साँस ली।

गौरतलब है कि उपपायलट हवाईजहाज उतार सकता था तो मौत का सीधा खतरा तो नही था। पर अगर कॉकपिट के दरवाजे को बाहर से ही खोला जा सकता हो तो फिर आतंकवादी क्या करेंगे? खैर ऐसी भी बात नही क्योंकि बाहर से तभी खोला जब अंदर से भी खुला था, पर यदि ऐसा था तो क्या पायलट दरवाजा खुला रख के बाहर जाता है? बहुत 'कंन्फ़्यूज़न' है भैया!

(समाचार, साभार)

Wednesday, August 30, 2006

मूर्खता के नियम

हमेशा ही, बिना अपवाद के, किसी भी समूह में कोई मूर्खों की संख्या कम ही आंकता है।

यह है बर्कले (Berkeley) स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (University of California) में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर कार्लो किपोला (Carlo M. Cipolla) द्वारा मानवीय मूर्खता पर अध्यन कर बनाये गये नियमों में से पहला मूल सिद्धांत। [कड़ी साभार]

कोई आइंस्टाईन भी क्यों ना हो, उसने कभी ना कभी तो मूर्खता की ही है। कहा जाता है कि प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री आईज़क न्यूटन ने भी अपने घर के दरवाजे पर अपनी बिल्ली और उसके बच्चों के लिये एक बड़ा और कई छोटे छेद कर रखे थे ताकि वो अंदर-बाहर आ-जा सकें। हम चाहें ना चाहें मूर्खता इंसान की पृवत्ति है, यद्यपि अधिकतर लोगों के लिये ये हँसी या थोड़ी तकलीफ का साधन होती है, इनकी तरह कुछ लोग मूर्खता की मिसाल कायम कर देते हैं। और सभी जानते हैं कि दुनिया की सारी गलतियाँ सिवाय आपके अन्य "स्टुपिड" लोगों के महत्वपूर्ण औहदों पर होने से ही होती है, हैं ना?

मुर्खता के पहले नियम के अनुसार आप कभी भी मूर्खों की संख्या सही आंक ही नही सकता क्योंकि कहीं ना कहीं कोई ना कोई तो ऐसा निकल ही जायेगा जो आपके अनुमान से बड़कर अपनी मूर्खता से आपको चौंका ही देगा। मुर्खता का दूसरा नियम इस प्रश्न को जवाब देता है कि क्या कुछ समूह अन्य समूहों से कम मूर्ख होते हैं। यानि कि:
किसी व्यक्ति के मूर्ख होने की संभावना उस व्यक्ति की किसी अन्य पृवत्ति से पूर्वतः स्वतंत्र होती है।

अर्थात नोबेल पुरस्कार विजेता और देहाती दोनो के मूर्ख होने की संभावना समान होती है। मुर्खता का तीसरा नियम मूर्ख व्यक्ति को पारिभाषित करता हुआ कहता है कि:
मूर्ख वह है जो कि किसी वस्तु, व्यक्ति या समूह को नुकसान पहुँचाता है, जबकि उसे खुद कोई फायदा नही होता, बल्कि शायद नुकसान ही होता है।

इसी कारण आप किसी के मूर्ख व्यवहार को कभी समझ ही नही सकते। सिर्फ अपने बाल नोचने के ये सोचना समझदार व्यक्तियों के लिये असंभव हो जाता कि कथित मूर्ख ऐसा कर ही क्यों रहा है। और चूँकि मूर्ख बिना लाभ के आपको नुकसान पहुँचाता है, अधिकतर अनजाने में, उनसे बचना भी मुश्किल होता है क्योंकि आप पहले से सोच ही नही सकते कि कोई ऐसी हरकत भी करेगा। प्रो. कार्लो उस व्यक्ति जो आपका और खुद का नुकसान करता है और उस व्यक्ति जो खुद का नुकसान कर आपका फायदा करता है में अंतर बताते हुऐ चौथा मौलिक नियम बताते है:
अमूर्ख व्यक्ति मूर्खों से होने वाले नुकसान का अंदाज़ नही लगा पाते और हमेशा भूल जाते हैं कि किसी भी समय, अवसर और परिक्षेप में मूर्खो से जुड़ना नुकसान के सिवाय कुछ नही लाता।

मूर्ख बिना लाभ के नुकसान पहुँचाता है, उनसे बचना भी मुश्किल होता हैपाँचवा और अंतिम मूर्खता का नियम मूर्खता के सामाजिक प्रभाव के बारे में कहता है कि:
एक मूर्ख व्यक्ति दुनिया में सबसे ज्यादा खतरनाक होता है।

चूँकि पहले नियमानुसार समस्त समूहों में मूर्खों की संख्या समान होती है, एक विकसित और पतित समुदाय में अंतर सिर्फ यह है कि मूर्खों को कितनी शक्तिशाली स्तरों पर बिठा रखा है। है ना मजेदार विश्लेषण?

Saturday, August 26, 2006

डाकुओं की लूट का बँटवारा

अर्थशास्त्र की प्रमेयों और सिद्धांतों में अर्थव्यवस्था के खेल में लगे प्रत्येक खिलाड़ी - चाहे वह आम आदमी, संस्था, व्यापार संगठन अथवा सरकार हो - को तर्कसंगत (rational) अस्तित्व माना जाता है। इसके अनुसार कोई भी सत्ता अपने किसी भी निर्णय को अपने सम्मुख उपलब्ध समस्त विकल्पों के बारें में समस्त जानकारी के साथ पूर्णतः अपने स्वार्थ से ही लेगी। इस पूर्वानुमान में व्यक्ति की भावनावों को भी एक भार दिया जा सकता है और निःस्वार्थ कार्य करने के सुख को स्वार्थ की खुशी के लिये किया गया कार्य माना जा सकता है। अंततः किसी भी व्यक्ति के किसी भी निर्णय को उसके द्वारा सभी उपलब्ध विकल्पों की सीमा में अपनी उपयोगिता सर्वाधिक करने के प्रयास का हल माना जा सकता है। और अगर हम जरा गौर फरमायें तो ये कथन लगभग सर्वदा सत्य ही प्रतीत होता है।

लेकिन हमारे दिन-प्रतिदिन की कुछ घटनायें हमें मनुष्य की तर्करहित मानसिकता से सामना कराती हैं। कई शोधों द्वारा यह सिद्ध हुआ किया गया है कि अभी १०० रूपये लेने और एक साल बाद ५०० रूपयें लेने के विकल्प प्रस्तुत करने पर असंगत संख्या मे लोग पहला वाला, यद्यपि तर्करहित, विकल्प चुनते हैं। इसका कारण यह है कि इंसान की भावनायें और मनोविज्ञान को अभी तक ढंग से समझा नही गया है। और इस स्थिती में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं जो सामान्य समझ से बाहर होती हैं और गणित चरमरा जाता है, क्योंकि फिर ऐसी अवस्था में भविष्य में व्यवहार का अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है।

उदाहरणतः एक प्रसिद्ध समुद्री डाकुयों की लूट की समस्या (pirates' problem) ही लीजिये। मानें कि ५ बहुत खूनी, लालची, बेदर्दी, तर्कसंगत और लोकतांत्रिक डाकुओं के पास सोने की १०० मोहरें हैं जिन्हें आपस में बाँटना है। डाकू आपस में सब बराबर हैं सिवाय इसके की उनमे कैसे भी एक श्रेष्ठता क्रम है - मान लीजिये की उम्र के अनुसार। लूट बाँटने का सीधा तरीका है - सबसे ज्येष्ठ डाकू एक बँटवारा प्रस्तावित करेगा और सारे डाकू उसके पक्ष और विपक्ष में वोट देंगे। अगर आधा या आधे से ज्यादा वोट मिलते हैं तो बँटवारा मंजूर होगा अन्यथा ज्येष्ठ डाकू को मार दिया जायेगा और बाकियों में से ज्येष्ठ पुनः इसी क्रिया को दोहरायेगा। निश्चित ही कोई मरना नही चाहता और सर्वाधिक धन पाना चाहता है। आप चाहें तो इस जगह रुक कर हल सोचने का प्रयत्न कर सकते हैं।

हल के लिये हमें यह ध्यान देना है कि एक डाकू मरते ही यह N डाकुओं की बजाय N-1 डाकुओं की समस्या बन जाती है। इसके हल को भी उलटा चालू करते हैं २ से और फिर ५ तक पहुँचते हैं। तो २ डाकुओं में श्रेष्ठ डाकू सारी अशर्फियाँ स्वयं को प्रस्तावित कर सकता है और खुद के वोट से प्रस्ताव मंजूर भी करा सकता है और दूसरे को कुछ भी नही मिलेगा। ३ डाकुओं के होने पर श्रेष्ठतम को सिर्फ निम्नतम डाकू को एक अशर्फी का लालच देना है और खुद के लिये ९९ रख सकता है। फिर खुद के और निम्नतम डाकू के वोट से वह २ के मुकाबले १ से जीत जायेगा। यह समझना जरूरी है कि तीसरा इस प्रस्ताव से सहमत होगा क्योंकि वह अगर नही होता तो पहला मारा जायेगा और फिर दो डाकुओं में उसे कुछ भी नही मिलेगा। तर्क की दृष्टि से यह तीसरे डाकू के लिये सर्वश्रेष्ठ सौदा है। यदि इसी तरह चार डाकुओं के बारे में सोचें तो श्रेष्ठतम से निम्नतम क्रमशः ९९, ०, १, ० मोहरों का बँटवारा सर्वोत्तम होगा और पाँच डाकुओं के लिये ९८, ०, १, ०, १ का बँटवारा। हम खेल को अगणित डाकुओं तक बढ़ा सकते है, हालाँकि २०० के बाद - सिवाय कुछ विशेष संख्याओं के - कुछ डाकू तो मरेंगें ही कैसा भी प्रस्ताव रखा जाये।

चूँकि यह सर्वश्रेष्ठ हल है इस समस्या का, हम यह आशा कर सकते हैं कि वे डाकू ऐसा ही करेंगे। लेकिन वास्तविक जिंदगी में ऐसा हुआ तो क्या अनुमान है आपका? सहज ही हम जानते हैं ऐसा नही होगा। तीन डाकुओं के खेल में तीसरा वाला एक मोहर के प्रस्ताव को कभी पारित नही करेगा क्योंकि उसके अनुसार एक मोहर और शून्य मोहर में ज्यादा अंतर नही और ऐसे प्रस्ताव को रखने वाले को मार कर बदला लेना ज्यादा उचित होगा। और ज्येष्ठ डाकू अगर मनोविज्ञान को जरा भी समझता होगा तो एक से ज्यादा ही प्रस्तावित करेगा निम्नतम डाकू का वोट लेने के लिये। मामला कितने पर निपटता है यह तो दोनो पर निर्भर करता है, पर परेशानी हमारे सामने यह है कि जब तर्कसंगत हल से हट कर करने पर तीसरे डाकू को ज्यादा लाभ होता है तो फिर पहले वाला हल तर्कसंगत कैसे हुआ? तर्क-अतर्क की परिभाषा क्या विज्ञान और दर्शनशास्त्र के विकास द्वारा सीमित है या फिर कुछ ऐसा है जिसका हम अनुमान भी नही लगा पा रहें है?

Wednesday, August 23, 2006

ऐसा भी एक नाच

देखिये ये मजेदार वीडीयो: कसरत की ट्रेडमिल पर नाच!



घर पे बिना डॉक्टर की उपस्थिती के प्रयास ना करें!

चींटी और टिड्डे की कहानी

बहुत पहले की बात है...

चींटी तमतमाती गर्मी में काम करती रहती, घर बनाती, खाना इकट्ठा करती। टिड्डा सोचता चींटी मूर्ख है, वो उसका मजाक बनाता और सारी गर्मी नाचता-गाता मस्ती से गुजारता। जब सर्दी आई तो चींटी अपने घर में आराम से सुरक्षित और गर्म रहती और खूब खाती। दूसरी और टिड्डा ना खाना ढूँढ पाता ना जगह और ठंड के मारे मर जाता।

फिर समय बदला। धरती पे इंसान आये, सभ्यता आई, समाज जन्मा, लोकतंत्र आया, और...

चींटी तमतमाती गर्मी में काम करती रहती, घर बनाती, खाना इकट्ठा करती। टिड्डा सोचता चींटी मूर्ख है, वो उसका मजाक बनाता और सारी गर्मी नाचता-गाता मस्ती से गुजारता।

जब सर्दी आई तो कंपकंपाते टिड्डे नें एक पत्रकार-सम्मेलन बुलाया और सबको दिखाया कि क्यों ऐसा अन्याय सहा जाये कि चींटी तो अपने घर में आराम से बैठे और खाये और बाकी लोग सर्दी से मरें? एन. डी. टी. वी., आज तक, बी. बी. सी. सभी ने कांपते-ठिठुरते टिड्डे के बगल में आराम से रहती चींटी के चित्र दिखाये। इंडिया टी. वी. ने चींटी के खिलाफ आंदोलन छेड़ने के लिये सभी से एस. एम. एस. भेजने को कहा और सी.एन.एन. ने इस विषय पर जनता की राय जानने के लिये दिल्ली में घूम कर अखिल-भारतीय सर्वेक्षण करा। सारी दुनियाँ भौंचक्की रह गई संपन्नता के विभाजन से। सारे चिठ्ठों पर बहस छिड़ गई कि ऐसा अपमान कैसे सहा जा सकता है, क्यों बिचारा टिड्डा इतना दुख सहे?

अरूंधती राय ने चींटी के घर के सामने धरना डाल दिया। राजनीतिक पार्टीयाँ सड़को पे निकल आई और बसें और दुकाने फूँकने लगी। विद्यार्थी आत्मदाह की धमकी देने लगे। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन और कोफी अन्नान नें टिड्डे के जीवन के मूलाधिकारों का हनन होने पर भारत सरकार को डाँट लगाई। तीन दिन लोक सभा भंग रही और विपक्ष वालों गृहमंत्री के इस्तीफे की माँग करी। वामदलों ने पश्चिम बंगाल और केरला में भारत बंध की घोषणा करी और उच्चस्तरीय न्यायिक जाँच की माँग की। अंतर्जाल पे टिड्डे के अधिकारों की रक्षा के लिये निवेदनों की भीड़ लग गई।

अंत में जाँच समिती टिड्डे के विरुद्ध आतंक के विरोध में एक कानून बनाती है जिसे सर्दी के शुरू से लागू किया जाता है। चींटी को इस कानून के तहत जेल भेज दिया जाता है और उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाती है। प्रधानमंत्री चींटी का घर एक भव्य समारोह में सारे टी.वी. और अखबारों के सामने टिड्डे को भेंट कर देते हैं।

अरूंधती राय इसे न्याय की जीत बताती है, पत्रकार टिड्डे इंटर्व्यू लेने के लिये लाईन लगा लेते हैं, इंडिया टी.वी. वाले बधाई के एस.एम.एस. मँगवाते है और कोफी अन्नान टिड्डे को संयुक्त राष्ट्र की सभा संबोधित करने का निमंत्रण देता है।

Friday, August 18, 2006

सामाजिक विकास की दिशा कितनी हमारे हाथों में

ये मन का मंथन है, विचारों का प्रवाह है, सोच की दिशा है...किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा हूँ...

हम इंसान, समाज, राष्ट्र और विश्व के रूप मे प्रतिदिन अपने लिये एक राह चुनते हैं, एक दिशा बनाते हैं, एक प्रयास करते है उस मार्ग की और जिस तरफ हम सब जाना चाहते हैं। यद्यपि हमें यह प्रतीत होता है कि मानवता विकास के विपरीत जा रही है, पर यह तो विकास की परिभाषा पर निर्भर करता है ना? प्रगति या पतन - जाने या अनजाने, समझे या बिना समझे, सहमति से या बल पूर्वक हम एक निर्णय लेते हैं जो हमारा भविष्य बनाता है। सर्वसंभव अपने अनुसार उपलब्ध ज्ञान और विश्लेषण के अनुसार हम उज्जवल भविष्य की कामना करते हुये एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प चुनते हैं। एक कदम और सही। पर उन्ही कदमों पर चलते-चलते क्या हम उस मंजिल की और बढ़ रहे हैं जो हमें स्वीकार नही? वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार लिये गये निर्णय क्यों हमें उस मार्ग की और ढकेलते हैं जिसकी मंजिल पर हम पहुँचना शायद नही चाहते? विकल्प भी क्या है: क्या सर्वश्रेष्ठ निर्णय लेना छोड़ दे, अगर हाँ तो फिर कैसे दिशा चुनें; या मंजिल को नियती मान कर स्वीकार कर लें?

विकास के कई मापन हैं और क्या मानवता के रूप में हम अभी पचास वर्षों पहले से ज्यादा सुखी हैं पर बहस अंतहीन। पर मैं विकास को ऐसे पारिभाषित करना चाहता हूँ: क्या आप पचास वर्ष पुरानी दुनिया में रहना पसंद करेंगे आज की बजाय? क्या हमारे पूर्वज उस समय की बजाय आज के समय में रहना पसंद करेंगें? यदि उत्तर "हाँ" में है तो हम पचास वर्ष पूर्व की तुलना में विकसित हैं। इस प्रविष्टी में विकास शब्द इसी अर्थ में उपयोग किया जायेगा। संसार के समस्त राष्ट्र इस पैमाने से विकास के अलग-अलग पगार पर खड़े हैं और इस लेख में उदाहरण विभिन्न देशों से दियें जायेंगे।

अमेरिका और यूरोप में पूँजीवाद (capitalism) का प्रभुत्व है। पूँजिवाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थक है। भारत में भी इस विचार के समर्थकों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, हालाँकि सामाजिक दायरे अभी भी जनता की स्वीकृत लिये हुए हैं। आजकल अमेरिका में समलैंगिक (homosexual) लोग विवाह की माँग कर रहें है और भारत में पहिचान की। बीस वर्ष पहले ये सोचना भी असंभव था पर आज ये सच्चाई है। और सभी बुद्धिजन इन माँगो का समर्थन करते हैं। नीदरलैंड, बेल्जियम, स्पेन, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा में समलैंगिक विवाह कानूनन है। समय के साथ ही भारत में जहाँ एक समय में परजाति विवाह की कल्पना भी नही की जा सकती थी वहाँ आज धर्मांतर विवाह सामान्य हैं या कुछ समय में हो जायेंगे। पचास सालों पहले अमेरिका में श्वेत और अश्वेत के बीच मिलाप अशोचनीय था और आज की स्थिती से हम सभी परिचित हैं। क्या यह कल्पना करना कि अगले सौ सालों में मानव और पशु का विवाह भी कानूनन हो जाये सपना होगा? यदि हम यहाँ दिये गये उदाहरणों पर नजर डालें तो ये असभ्य विचार भी असंभव नही लगता। एक-एक कदम सही राह पर चलते चलते हम उस मंजिल की और बढ़ रहें जो शायद हम नही चाहते...या कौन जाने शायद तब तक चाहने लगेंगे?

व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्षपाती मानते हैं कि जब तक कोई किसी का नुकसान नही कर रहा हो तब तक समाज या सरकार को उसके खिलाफ नियम नही बनाने चाहिये। पर कभी यही नीति हमें ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करती है जिसके लिये हमारे पास कोई जवाब नही होता। दिसंबर २००२ में एक व्यक्ति नें अंतर्जाल के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को मारकर खाने (cannibalism) की इच्छा व्यक्त की और मरने के लिये स्वयंसेवक माँगे। एक अन्य व्यक्ति तैयार गया और पहले ने दूसरे को सहमति से मारकर खा लिया। हालाँकि अदालत ने पहले को हत्या की सजा सुनाई, मामले की उपस्थिती ने हमारे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विचार को ठेस पहुँचाई और कई प्रश्न उठाये। अभी तो ये एक विचित्र घटना मान के भूल सकते हैं पर ये बहुत संभव है कि इसी तरह के प्रश्न समाज के सामने बार-बार आएंगे आगे।

एक समय वैश्यावृत्ति समाज का अभिशाप कही जाती थी। कई जगह अभी भी यह स्थिती है पर जर्मनी, स्विटजरलैंड, ग्रीस, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और नीदरलैंड में यह कानूनन भी है। लोगों का नज़रिया भी परिवर्तित हो रहा है और वैश्याओं को नागरिक मानकर समाज की मुख्यधारा में लाने के प्रयास हैं। कुछ देशों में टी.वी. पर यौन सेवाओं का विज्ञापन दिखाना सामान्य बात है। सहिष्णुता और समता द्वारा दिशानिर्दिष्ट इन नीतियों ने समाज को उस दिशा में धकेल दिया है जहाँ जाना शायद उसका उद्देश्य नही था।

नीदरलैंड में बाल व्याभिचारी (pedophile) नागरिकों ने एक राजनैतिक पार्टी बना ली है जो कि यौन संबंध के लिये न्य़ूनतम आयु कम करना चाहती है तथा इस अपराध के लिये सजा कम करनें की पक्षधर है। इतने खुले समाज में भी ये सूचना नीदरलैंड के लोगों के लिये शर्मनाक है। पर समाचार की उपस्थिती ही एक नये युग की शुरूआत के चिन्ह हैं।

भारत सरकार के वन्य जीवों, विशेषकर शेर और चीते के, संरक्षण में असफल रहने पर कुछ लोग शेरों के समूह उत्पाद के विचार को प्रस्तावित कर रहें है जैसे अभी गाय-बकरियों का होता है। उनका तर्क है कि इस तरह चोरी से होने वाले शेरों के शारिरिक अंगो के व्यापार को कानून का जामा पहनाकर लोगों को शेर संरक्षित करने को उत्साहित किया जा सकता है। हो सकता है ये तरीका सही हो और एक जाति लुप्त होने से बच जाये, पर क्या हम हर जानवर को अपने वातावरण से निकाल कर सिर्फ खरीद-फरोख्त का सामान मानना चाहतें हैं, जबकि हम जानते हैं कि फैक्ट्रियों में होने वाले पशु पालन में कितनी क्रूरता होती है?

ये सभी समाचार मुझे सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या हम जिस दिशा की और बढ़ रहें वो सही है? पर हल भी तो समझ में नही आता क्योंकि अभी जो कर रहें हैं वह भी तो अपने हिसाब से सही कर रहें हैं। इसी से जुड़ा एक प्रश्न जिसका उत्तर मुझे आज तक नही मिला वो ये है कि क्या विकास की एक ही दिशा होती है? यदि हम यूरोप और अमेरिकन देशों को एशियन और अफ्रीकन देशों से विकसित मानें तो क्या ये संभव है कि सौ वर्ष के बाद जब विकासशील देश विकसित होंगे वे अभी के विकसित देशों से अलग हों? या फिर यह जरूरी है कि हम विकसित देशों के ऐतिहासिक पथ पर पीछे-पीछे चलते जाएं और उसी जगह पहुँचे जहाँ आज वो हैं? आजकल जो हो रहा है उस से ऐसा लगता है कि हमारी संस्कृति, राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य अमेरिका के मार्ग पर ही जा रहें हैं और हमारा विकास उनके विकास के रास्ते पर चल रहा है, मंजिल भी वही होगी फिर। निश्चित ही विकास के मापन - सभी को समता, सुख, सुरक्षा, आदि - समान हैं तो विकास के रास्ते में थोड़ा मिलाप संभव है, पर क्या कोई अलग रास्ता हो ही नही सकता? चीन और जापान जो कि भारत समान संस्कृति से अमेरिका समान संस्कृति की अग्रसर हैं वे तो यही बताते हैं कि विकास का मार्ग एक ही है।

इसका मतलब हम विकसित होकर भी उन्हीं समस्याओं - जैसे नैतिक पतन, लालच, व्यवसायीकरण, अकेलापन, स्वार्थ - में फँस जायेंगे जिनसे आज ये देश जूझ रहें है? उनसे बच के विकसित होना संभच नही क्या?

अदालत के कटघरे से

अदालत के कटघरे से चुटपुटियाँ - सच्ची या झूँठी - हँसी तो हँसी.....

प्र: आपका जन्मदिन कब है?
उ: तीस दिसंबर।
प्र: किस वर्ष?
उ: हर वर्ष।

प्र: ये जो दवाई आप लेते हैं, क्या ये आपकी याद्दाश्त को प्रभावित करती है?
उ: हाँ।
प्र: किस तरह से प्रभावित करती है?
उ: मैं भूल जाता हूँ।
प्र: आप भूल जाते हैं। क्या आप कोई उदाहरण दे सकते हैं जिसे आप भूल गयें हों?

प्र: आपके साथ जो बेटा रहता है, वो कितने साल का है?
उ: पैंतीस या अड़तीस, मुझे पक्का याद नही रहा।
प्र: और वो आपके साथ कितने समय से रह रहा है?
उ: पैंतालीस साल से।

प्र: आपके पति जब सुबह उठे तो पहली बात क्या बोली?
उ: उन्होने कहा, "मैं कहाँ हूँ, कैथी?"
प्र: फिर आपको बुरा क्यों लगा?
उ: क्योंकि मेरा नाम सुज़ान है।

प्र: और वह दुर्घटना कहाँ हुई?
उ: लगभग ४९९वें मील के पत्थर के पार।
प्र: और मील का पत्थर ४९९ कहाँ है?
उ: शायद मील के पत्थर ४९८ और ५०० के बीच में।

प्र: तो क्या आपने अपनी गाड़ी का होर्न बजाया कि नही?
उ: दुर्घटना के बाद?
प्र: नही, पहले?
उ: बिल्कुल। मैं पिछले दस सालों से गाड़ी चला रहा हूँ और होर्न बजाता रहा हूँ।

प्र: तो डॉक्टर, क्या यह सही नही है कि जब एक आदमी अपनी नींद में मर जाता है तो उसे अगली सुबह तक यह पता नही चलता कि वो मर गया है?

प्र: जब आपकी तस्वीर ली गई थी तो क्या आप वहाँ उपस्थित थे?

प्र: तो बच्चे के गर्भादान की तारीख आठ अगस्त थी?
उ: जी हाँ।
प्र: और आप उस समय क्या कर रहीं थी?

प्र: उसके तीन बच्चे थे, है ना?
उ: हाँ।
प्र: कितने लड़के थे?
उ: एक भी नही।
प्र: क्या कोई लड़की भी थी?

प्र: आप कहते हैं कि सीढ़ीयाँ तहखाने तक नीचे गयी थी?
उ: जी।
प्र: और क्या यही सीढ़ीयाँ ऊपर तक भी गई थी?

प्र: आपकी पहली शादी किस कारण से समाप्त हुई?
उ: मृत्यु के कारण।
प्र: और किसकी मृत्यु के कारण?

प्र: क्या आप व्यक्ति का हुलिया बता सकते हैं?
उ: वो मध्यम ऊँचाई का था और दाड़ी वाला था।
प्र: क्या वह आदमी था या औरत?

प्र: डॉक्टर, आपने कितने पोस्ट-मॉर्टम मृत लोगों पर किये हैं?
उ: मेरे सारे पोस्ट-मॉर्टम मृत लोगों पर ही होते हैं।

प्र: आपके सारे जवाब मुँह से ही होने चाहिये, ठीक? आप किस स्कूल गये थे?
उ: मुँह से।

प्र: क्या आप समय बता सकते हैं जब आपने शरीर का परीक्षण किया?
उ: शव का पोस्ट-मॉर्टम साढ़े आठ बजे चालू हो गया था।
प्र: और श्री राजकुमार उस समय मर चुके थे?
उ: नही, वो मेरी टेबल पर बैठे सोच रहे थे कि मैं उनका पोस्ट-मॉर्टम क्यों कर रहा हूँ।

प्र: डॉक्टर सा'ब, जब आपने पोस्ट-मॉर्टम चालू किया तो आपने नब्ज़ की जाँच की?
उ: नही।
प्र: क्या आपने रक्त दाब की जाँच की।
उ: वो भी नही।
प्र: क्या आपने साँस की पड़ताल की?
उ: नही।
प्र: तो श्रीमान, क्या यह संभव नही कि मरीज जिंदा हो जब आपने पोस्ट-मॉर्टम चालू किया?
उ: नही है।
प्र: आप इतना यकीन से कैसे कह सकते हैं, डॉक्टर?
उ: क्योंकि उसका दिमाग मेरी टेबल पर निकला पड़ा था।
प्र: पर फिर भी मरीज जिंदा तो हो सकता है ना?
उ: हाँ हो सकता है कि वो जिंदा हो और कहीं पर वकालत कर रहा हो।

(चुटकुले साभार, अनुवाद मेरा)

Thursday, August 17, 2006

आतंकवाद पर कुछ टिप्पणियाँ

आतंकवाद कोई नई खबर नही है। आतंकवाद को रोकने के प्रयासों के द्वारा होने वाली तकलीफे भी अब ज्यादा नई नही हैं। फिर भी जब किसी को हवाई अड्डे पे कड़ी जाँच से गुजरना पड़ता है और इसकी वजह से असुविधा होती है तो तुरंत बोल देता है कि 'इस तरह ही तो आतंकी जीतते हैं'। लोगों का कहना है कि हम आपस में विश्वास करना भूल जाएं, डर-डर कर जियें और परेशानी महसूस करें, यही तो आतंकी चाहते हैं। मुझे ये समझ में नही आता है कि कहाँ से इन लोगों को खयाल आ जाता है कि यही आतंकी चाहते हैं? आतंकी अपने राजनैतिक अथवा धार्मिक कारणों से उन्माद करते हैं और किसी के डरने से उनका मकसद पूरा नही हो जाता। मेरा ये नही कहना कि इंसान को डर कर जीना चाहिये पर जो जायज़ डर है उसके लिये सुरक्षा का उपाय करने में क्या बुराई है? बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि डर से तब तक डरना चाहिये जब तक वो सामने ना हो, जब सामने हो डर भूल कर लड़ना चाहिये। जो लोग आतंकवाद के रोकने के प्रयासों में कड़ी सुरक्षा और असुविधाजनिक नियमों को आतंकवादियों की जीत बताते हैं वो ये क्यों भूल जाते कि अगले हमलें मरने वाले निर्दोष लोगों की जान बचा कर हम आतंकियों को हरा रहें है, ना कि जिता रहें। क्या कुछ बार की असुविधा किसी की जान से ज्यादा प्रिय है?

इसी से जुड़ा एक विषय कई भारतीयों के मन में घृणा और हीनता उतपन्न कर देता है, और वो है हवाईजहाज यात्रा के दौरान, वीज़ा देने के समय, रेलवे में, आदि भूरें लोगों की सामान्य से अधिक जाँच-पड़ताल (racial profiling)। लोग इसे अपना अपमान मान बैठते हैं या यह मान लेते हैं कि सरकार किसी समुदाय विशेष को कुछ चरमपंथियों की हरकतों के लिये दोषी मानती है। मैं भी भूरा हूँ पर मेरी तार्किक समझ में तो ये बात आज तक नही आई। समझदारी मुझे कहती है कि यदि ये संभावना है कि किसी रंग, धर्म, समुदाय या वर्ग के लोग आतंकवादी ज्यादा होते हैं तो उनको रोकने के लिये उस रंग, धर्म, समुदाय या वर्ग के लोगों को विशेष रूप से क्यों ना जाँचा जाये? सांख्यिकी में इसे स्ट्रेटीफाईड सेंपल (stratified sampling) बोलते हैं। और ये तो तथ्य है कि एक समुदाय दूसरें समुदायों की अपेक्षा अधिक जिम्मेदार है, इतिहास इसका गवाह है, उसमें सच-झूँठ, विश्वास-अविश्वास क्या करेगा? तथ्य बदले थोड़े ही जा सकते हैं यदि पसंद नही आएं भी तो। और जब मेरे साथ हवाईजहाज पर ऐसा होता है तो मुझे कोई आफत नही, बल्कि प्रसन्नता होती है। क्योंकि अगर वो मुझ पर शक कर रहें है तो मेरे जैसे दिखने वालों पर भी शक करेंगे, और फिर चूँकि आतंकियों की मेरे जैसे दिखने की संभावना अधिक है तो फिर उनको पकड़ने की संभावना भी अधिक है। अगर पकड़े गये तो किसकी जान बचेगी? मेरी ही ना। भाई मुझे तो अपनी जान की खातिर हवाई यात्रा से पहले कड़ी जाँच किसी भी दिन मंजूर।

सी एन एन - आई बी एन और हिन्दु ने मिलकर एक सर्वेक्षण करवाया और बताया कि भारतीय आतंकवाद से नही डरते। तो किससे डरतें है? चोरी-चकारी और साम्प्रदायिक दंगो से। और इसका निष्कर्ष निकाला गया कि आतंकवाद अभी बड़ी समस्या नही और सरकार जो भी कर रही है ठीक है। जैसा कि नितिन जी ने लिखा ये तो वही हो गया कि आदमी जुकाम से ज्यादा डरता है बजाय दिल के दौरे तो तो दिल का दौरा गंभीर समस्या नही है। और भी बहुत पोल खोली है, जा कर पढ़िये। सिर्फ एक बात, यद्यपि आशानुरूप, बहुत खली, और वो ये है। आप अपने निष्कर्ष स्वतः निकालिये।

Hindu Poll

Wednesday, August 16, 2006

ये कौन चित्रकार है

हरी-हरी वसुंधरा...
नीला-नीला ये गगन... - २

हरी-हरी वसुंधरा पे नीला-नीला ये गगन
कि जिसपे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन
दिशाऐं देखो रंग भरीऽऽऽ
दिशाऐं देखी रंग भरी, चमक रहीं उमंग भरी
ये किसने फूल-फूल पेऽऽऽ
ये किसने फूल-फूल पे किया सिंगार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
(कोरस) ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार

तपस्वियों सी हैं अटल ये पर्वतों की चोटियाँ
ये सर्प सी घुमेरदार घेरदार घाटियाँ
ध्वजा से ये खड़े हुऐऽऽऽ
ध्वजा से ये खड़े हुऐ, हैं वृक्ष देवदार के
गलीचे ये गुलाब के, बगीचे ये बहार के
ये किस कवि की कल्पनाऽऽऽ
ये किस कवि की कल्पना का चमत्कार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
(कोरस) ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार

कुदरत की इस पवित्रता को तुम निहार लो
इसके गुणों को अपने मन में तुम उतार लो
चमका लो आज लालिमाऽऽऽ
चमका लो आज लालिमा अपने ललाट की
कण-कण से झाँकती तुम्हें छवि विराट की
अपनी तो आँख एक हैऽऽऽ
अपनी तो आँख एक है उसकी हज़ार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
(कोरस) ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार


Yeh Kaun Chitrakar...


१९६७ की फिल्म "बूँद जो बन जाये मोती" का ये मनोरम गीत मुकेश की आवाज़ में यहाँ से डाऊनलोड कीजीए।

Tuesday, August 15, 2006

हम भारत के लोग

India vividity

सर्वसाधारण को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाईयाँ।

हिन्दी चिठ्ठा जगत में कई लोगो ने अपनी बधाई और राष्ट्र के नाम संदेश दिया, और मैं यही सोचता रहा कि ऐसा क्या लिखूँ अपने चिठ्ठे पे जो कि पहले नही लिखा गया और मेरी बधाई भी ताजी रहे। इसीलिये प्रस्तुत है ये तस्वीर जो मैने अपने महाविद्यालय में (अमेरिका में) अंतर्राष्ट्रीय मेले में भारतीय बूथ के सामने लगाई थी और भारत को चंद तस्वीरों में समेटने की कशिश की थी।

चलते चलते, आज के दिन इन उज्वल शब्दों को याद कर लेना उचित होगा -

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रबुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये, तथा उसके समस्त नागरिको को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिन न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये,
तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिये दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवंबर, १९४९ ई० (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत्‌ दो हजार छह विक्रमी) को एतद्‍द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। [सूत्र]

Monday, August 14, 2006

कलाकार और उसकी कला

...के बीच में कभी लड़ाई हो तो कैसी होगी? शायद ऐसी होगी| डाऊनलोड यहाँ से करें| (कड़ी साभार)

चतुरायामी चलचित्र: एक अनुभव

जब से चलचित्रों का व्यवसायिक स्तर पर निर्माण शुरू हुआ, आज तक फिल्मों और चलचित्रों की तकनीकी में खासा परिवर्तन आया है। समय, अनुभव और विज्ञान नें इस कला और कला के प्रदर्शन में कई मील के पत्थर पार किये हैं। किंतु अभी तक भी - जबकि तकनीकी ज्ञान उपलब्ध है - चलचित्र द्विआयामी (2-D) पर्दे पर ही दिखाये जाते हैं। डिजिटल तकनीक के उपयोग से चित्रों और आवाज की गुणवत्ता में निस्संदेह सुधार हुआ है और हो रहा है, लेकिन चित्र अभी भी द्वियामी पर्दे पर ही त्रिआमी (3-D) वास्तविकता का आभास देने का प्रयास करते हैं।

फिर त्रियामी चलचित्रों की एक नई तकनीक आई जिसमें दो चित्रों को आंशिक रूप से एक-दूसरे के ऊपर रखा हुआ पर्दे पर प्रदर्शित किया जाता है और विशेष चश्में से दोनो को मिला कर गहराई का अनुभव होता है - जैसा कि हमारी आँखे करती है। मेरी सबसे पहली त्रियामी फिल्म "छोटा चेतन" नामक थी जो लगभग १९९५ में देखी थी। अनुभव निश्चित ही रोमांचक था।

अमेरिका में आने के बाद आई-मेक्स (I-Max) तकनीक से भी दो-चार फिल्में देखी जो कि द्वियामी ही होती है पर पर्दा इतना बड़ा होता है कि हमारे दृष्टिक्षेत्र का कोई भी हिस्सा खाली नही रहता - पर्दे की सीमायें देखने के विस्तार से बाहर होती हैं - और ऐसा महसूस होता है दर्शक भी फिल्म के दृश्यों की बीच में विराजमान है। हैरी पोट्टर की तीसरी फिल्म आई-मेक्स में त्रियामी तकनीक से देखी और अनुभव ने एक और सीमा पार की।

पर पिछले महीनों में जब यूनिवर्सल स्टूडियो हॉलिवुड (Universal Studio Hollywood) और सी-वर्ल्ड सेन-डिएगो (Sea-World San Diego) गया तो पहली बार चतुरायामी चलचित्रों (4-D) का अनुभव हुया। चतुरायामी चलचित्रों में त्रियामी चित्रों को पर्दे पर दिखाया जाता है पर आँख और कान की ज्ञानेन्द्रियों के अलावा स्पर्श और गंध की ज्ञानेन्द्रियों की भी आवश्यकता पूरी की जाती है। विशेष रूप से बनाई गयी सीटें और फर्श के कंपन, ढलाव, और हलचल से दर्शक भी फिल्म के किरदारों की तरह पर्दे की हलचल (जैसे भूकंप, गाड़ी, झटका,...) महसूस करते हैं। कुर्सी की पीठ, पैरों के पास नीचे, सामने वाली कुर्सी के पीछे, छत पर सामने लगे विशेष यंत्र समयानुसार हवा और पानी का झौंका आपकी तरफ फैकते है। कमरे में लगे हुये तंत्र फिल्म के अनुसार सुगंध, दुर्गंध, बारूद इत्यादि की गंध से कमरे को भर देते हैं। कुल मिलाकर दर्शक फिल्म के बाहर बैठकर नही बल्कि फिल्म के अंदर बैठकर किरदारों के साथ घटनाओं का अनुभव लेते हैं।

चूँकि ये अनुभव चतुरायामी अनुभव के लिये बनाई गयी विशेष फिल्मों के साथ हुये, उनमें जानकर ही उन क्रियाओं की अधिकता थी जिनको उपलब्ध चतुरायामी तकनीक से प्रभावित किया जा सके। अगर हम कुछेक वर्षों के विकास के बाद मान लें कि स्वाद प्रभावित करने का भी यंत्र बन जाये तो? यह कल्पना करने में ज्यादा बुद्धि नही चाहिये कि इस तकनीक को सभी फिल्मों में भी आराम से लगाया जा सकता है। और यदि चतुरायामी चलचित्रों को आई-मेक्स से मिला लिया जाये तो शायद जन्नत की सी अनुभुति होती होगी! और चूँकि ये अब तक नही हुआ है, प्रश्न है कि क्या लागत ही मुख्य अवरोध है, या फिर कुछ ऐसा है जिससे दो-तीन घंटो वाली फिल्मों में चतुरायामी तकनीक से होने वाली ज्ञानेन्द्रियों की अभिभूतता हमें खटकेगी? क्या दर्शकों की चैतना चलचित्रों के तकनीकी विकास की दिशा में बाधा हो सकती है?

Saturday, August 12, 2006

कोमा जो मात दे गया

लिखने में वर्तनी और व्याकरण की गलतियों से शायद ही कोई बचा हो, किंतु हम में से किसी नें इनके लिये परीक्षा में २-४ अंको के अलावा ज्यादा नही खोया है। कनाडा की एक कंपनी रोज़र्स कम्मुनिकेशन (Rogers Communications) इतनी भाग्यशाली नही थी, जिसने एक कोमा की गलती की सजा २१.३ लाख डॉलर देकर चुकाई!



हुआ यूँ कि रोज़र्स नें एलिऐंट (Aliant) से एक सेवा का पंच-वर्षीय समझौता किया २००२ में - एलिऐंट को रोज़र्स के संचार तारों को सारे खंबों से बाँधना था और उनकी मरम्मत करनी थी $९.६० प्रति खंबे की दर से। समझौते की शर्तो के अनुसार समझौता पाँच साल तक लागू रहेगा, और उसके बाद अगले पाँच साल के लिये बढ़ाया जा सकता है जबकि दोनो में से कोई भी कंपनी एक वर्षीय सूचना देकर समझौता नही तोड़ती है। सीधी सी बात, नही? पर इस वाक्य को समझौते के लेखाकारों ने ऐसे लिखा:


The agreement “shall continue in force for a period of five years from the date it is made, and thereafter for successive five year terms, unless and until terminated by one year prior notice in writing by either party.”



और यहीं रोज़र्स मात खा गया। दूसरे कोमा को (unless के पहले) देखिये। इसकी अनुपस्थिती में समझौता रद्द करना २००७ के बाद ही संभव था; इसकी उपस्थिती में पहलें पाँच सालों में भी एक-वर्षीय सूचना के साथ रद्द करना जायज़ है। एलिऐंट के तेज वकीलों ने इस पंक्ति को पकड़ा और साल भर पहले सेवा देना बंद करने की सूचना दे दी। और काम की कीमते बढ़ा दी। बेचारे रोज़र्स के वकील खिसिया रहे हैं। ये तो फिर भी एक उद्यम को हुआ जिसके लिये २१ लाख शायद ज्यादा मायने नही रखता पर फिर भी...अब व्याकरण को नई दृष्टि से देख रहा हूँ!



कड़ी साभार, पूर्ण समाचर

http://www.futilitycloset.com/2015/07/08/law-and-punctuation/

Friday, August 11, 2006

गर्भावस्था - सवाल और जवाब

प्र: क्या मैं पैंतीस के बाद बच्चे पैदा कर सकती हूँ?
उ: नही, पैंतीस बच्चे बहुत हैं।

प्र: गर्भावस्था में सबसे ज्यादा किस चीज की इच्छा होती है?
उ: कि काश औरतों की बजाय आदमी गर्भवती होते।

प्र: बच्चे के लिंग जानने के लिये सबसे अच्छा तरीका क्या है?
उ: बच्चे का जन्म।

प्र: जैसे-जैसे मेरी गर्भावस्था बढ़ती है, ज्यादा-ज्यादा अनजाने लोग मुझे देखकर मुस्कुराते हैं। क्यों?
उ: क्योंकि आप उनसे भी ज्यादा मोटी हैं।

प्र: मेरी पत्‍नी पाँच महीने से गर्भवती है, और इतनी मूडी (moody) है कि कभी वो पागल तक हो जाती है।
उ: तो प्रश्‍न क्या है?

प्र: मेरे बच्चों के डॉक्टर ने बताया कि जन्म के दौरान मैं दर्द नही दबाव महसूस करती हूँ। क्या वो सही है?
उ: हाँ, उसी तरह जिस तरह तूफान को हवा का झौंका भी कहा जा सकता है।

प्र: क्या ऐसी कोई चीज है जिससे मुझे बचना चाहिये बच्चे के जन्म के बाद?
उ: हाँ, दूसरी गर्भावस्था।

प्र: हमारा बच्चा पिछले सप्ताह पैदा हुआ। मेरी पत्‍नी कब सामान्य महसूस होना और बर्ताव करना शुरू कर देगी?
उ: जब बच्चें कॉलेज में जा चुके हों।

Thursday, August 10, 2006

चित्रों में यूनिवर्सल स्टूडियो हॉलीवुड

entrance

कुछ सप्ताह पहले मैं (दायाँ) और मेरे मित्र अंकुश (मध्य) और रवि (बायाँ) लॉस-एन्जेल्स (Los Angeles) स्थित यूनिवर्सल स्टूडियो (Universal Studio Hollywood) गये थे। अमेरिका के प्रसिद्ध चलचित्र निर्माण उद्यम यूनिवर्सल स्टूडियो की फिल्मों के आधार पर बना यह पार्क कई खेल-खिलोने समेटे हुये है। साथ ही कई असली के सेट और सामाग्री भी हैं जिन्हें कई प्रसिद्ध फिल्मों में उपयोग किया गया है। ऊपर के चित्र में हम मुख्य द्वार पर बैठे हैं और हर देसी की तरह एक "गया था-देखा था" (been there, done that) वाला चित्र खिंचवा लिया! फिर हम "जुरासिक पार्क" के सेट के आधार पर बनी नौका यात्रा पर गये।

jurassic park

अगले चित्र में हम छलांग लगाने वाली नाव की यात्रा के बाद बाहर खड़े हैं।

boat jump

"ममी" फिल्म के आधार पर एक रॉलर-कॉस्टर झूला भी बड़ा मजेदार था हांलाकि सिक्स-फ़्लैग्स (Six Flags) जैसे पार्कों के मुकाबले बहुत ही कम रोंमांचक था।

mummy ride

रास्तें मे डॉनाल्ड-डक, मिकी माऊस और भी पता नही कौन-कौन से चरित्र ऊटपटांग नाच रहे थे - और आश्चर्य की बात कि छोटे बच्चें इनके भी हस्ताक्षर ले रहे थे!

donald duck

सब खेल निपटाकर यूनिवर्सल के पुराने सेटों पर गयें। नीचे दिये चित्र को ध्यान से देखिये - क्या कमाल की चीज है। मेरा चित्र पृष्ठभूमि से थोड़ा बड़ा है वरना इसको देखकर लगता नही कि ये बहुत छोटा सांचा है जिसे फिल्मों में दूर से दिखता जहाज बना दिया जाता है।

fake facade

पूरा का पूरा शहर बनाया हुआ है कई जगह बिना ईंट और सींमेंट के सिर्फ फ़ॉम से बिलकुल असली दिखने वाला। अगले चित्र में भी पृष्ठभूमी केवल एक बड़ा सा बॉर्ड है जो कि एक नजर में असली की पहाड़ी दिखती है (हांलाकि ये सेट का हिस्सा नही)।

hollywood sign

अंत मे चलते-चलते शाम की रंगीनी को कैमरे में कैद करता ये ग्लोब:

hollywood ball

अरे हाँ, रास्ते में ये डरावने वाले भाईसाहब भी मिले थे तो हमने सोचा इनको भी जरा निबटा ही देते है!

kick it


इस यात्रा के समस्त चित्र देखनें के लिये यहाँ क्लिक करें और मेरे अन्य चित्र देखने के लिये यहाँ पधारें

Wednesday, August 9, 2006

धागों का त्योहार

रक्षाबंधन के इस पावन पर्व पर सभी को बधाई एवं शुभकामनाऐं। व्यस्तता और पाश्चात्यीकरण की और अग्रसर हमारे इस समाज में जहाँ दीवाली के पटाखों की गूँज हल्की होती जा रही है, होली के रंग फ़ीके पड़ते जा रहें, एवं वैलेंटाईन डे करवाचौथ को पीछे धकेल रहा है, मेरी ये मनोकामना है कि राखी का सरल किंतु अपने रूप मे दुनिया में शायद अनोठा यह पवित्र त्योहार हमारे हृदय से ना रूठे।

इसी के साथ सुनिये रागा पर ये गीत और अपने भाई/बहन को याद कर लीजीये...

चित्र साभार: सर्च डॉट कॉम

Saturday, August 5, 2006

स्वर्ग या नर्क?

स्वर्ग वहाँ है जहाँ है आपके पास:

* अमेरिकन आमदनी
* ब्रितानी घर
* चीनी व्यंजन
* स्विट्जर्लेंड की अर्थव्यवस्था
* ईतालवी सेहत/शरीर
* जापानी तकनीकी
* अफ्रीकी औजार
* भारतीय पत्‍नी

नर्क वहाँ है जहाँ है आपके पास:

* अमेरिकन पत्‍नी
* ब्रितानी सेहत/शरीर
* चीनी औजार
* स्विट्जर्लेंड के व्यंजन
* ईतालवी तकनीकी
* जापानी घर
* अफ्रीकी अर्थव्यवस्था
* भारतीय आमदनी

Thursday, August 3, 2006

ठहाको का खज़ाना

पिछली प्रविष्टी के संदर्भ में मेरा अफ़वाह निर्देशिका (Urban Legend Reference Pages) पर जाना हुया। निर्देशिका लगभग सभी ई-मेल अग्रस्थ सच और झूठी खबरों और अफ़वाहों की सूची है, और उनके जन्म के बारे में यथासंभव जानकारी रखती है। ये समझ लीजीये कि ठहाकों का खज़ाना मिल गया। क्या-क्या लोग बनाते है कल्पना भी नही की जा सकती! उदाहरण के तौर पर देखिये अमेरिका में बच्चों के लिये सरकारी सहायता हेतु निवेदन पत्र की पंक्तियाँ, गरीबों द्वारा सरकारी सहायता हेतु निवेदन, महिला मित्र के तोहफा में अदला-बदली का असर, बोर होने पर सुपरस्टोर में मस्ती करने के नुस्खे, और भी बहुत कुछ! पढ़िये और कई दिनों तक मुस्कुराईये!

साथ ही कुछेक रोचक जानकारी भी है: माईक्रोवेव में पानी उबालने से मुसीबत, चीन की दीवार चाँद से नही दिखती, डाईहाईड्रोज़न-मोनोऑक्साईड के नुकसान, किस्मत का कमाल और बड़प्पन की मिसाल!

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अन्य खबरों मे: टाईम्स के अनुसार नये अनुसंधानों द्वारा ये सिद्ध किया गया है कि सुंदर जोड़ों को लड़कियाँ होने की संभावना २५‍% तक अधिक होती है क्योंकि जीवों के विकास के दौरान सुंदरता स्त्री के लिये अच्छा वर ढूँढ़ने में सहायक रही है जबकि पुरूष को सुंदरता से कोई विशेष फायदा नही होता। अतः संबंधित जीनों का मानव में आधिपत्य हो गया है। (कड़ी साभार)

Tuesday, August 1, 2006

साबुन चाहिये श्रीमान?

चेतावनी: ऐसी जगह ना पढ़े जहाँ दिल खोलकर हँस ना सके!

आरोन्स-जोक्स से अनुवाद किया गया चुटकुला जहाँ यह शैली बर्मन (Shelly Berman) द्वारा लिखित "होटल एक मजेदार जगह" (A Hotel Is A Funny Place) से लिया गया:

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प्रिय सेविका,

कृपया इन छोटे साबुनों की बट्टियों को मेरे स्नानागार में ना छोड़े क्योंकि मैं स्वयं का बड़ा सा साबुन लाया हूँ। कृपया दवाओं की अलमारी से नीचे की अलमारी में रखी छः और स्नानागार की साबुनदानी में रखी तीन बिना खुली बट्टियाँ हटा लें, वे मेरें काम करने के रास्ते में आ रहीं हैं।

धन्यवाद,
शैली बर्मन
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प्रिय कमरा क्रमांक ६३५,

मैं आपकी रोजमर्रा की सेविका नही हूँ, वह तो अपनी छुट्टी के बाद से कल आयेगी। जैसा आपने कहा वैसे मैने तीन साबुन की बट्टियाँ साबुनदानी से हटा दी हैं। अलमारी में रखी हुई छ: बट्टियाँ मैने आपके रास्ते से हटाकर क्लीनेक्स के डब्बे के ऊपर रख दी गई है अगर आपके विचार बदलें तो। इसके बाद मैने जैसा कि मुझे प्रबंधन से निर्देश है उसके अनुसार तीन बट्टियाँ स्नानागार में रख दी गई हैं। आशा करती हूँ कि आप संतुष्ट होगें।

कैथी, अस्थाई सेविका
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प्रिय सेविका - मैं आशा करता हूँ कि तुम मेरी नियत सेविका हो

लगता है कैथी ने तुम्हें साबुन की बट्टियों के बारे में मेरे पत्राचार के बारे में नहीं बताया। जब मैं आज शाम अपने कमरे पर लौटा तो पाया कि तुमने ३ कैमे मेरी दवाओं की अलमारी के नीचे वाली अलमारी में रख दिये हैं। मैं इस होटल में दो सप्ताह रुकने वाला हूँ और इसीलिये खुद का बड़ा सा साबुन भी लाया हूँ, अतः मुझे ये छः कैमे की बट्टियाँ नही चाहिये जो अलमारी में हैं। वे मेरे दाढ़ी बनाने और मंजन करने के रास्ते में पड़ती हैं, कृपया उनहे हटा लें।

शैली बर्मन
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श्रीमान बर्मन जी,

सहायक प्रबंधक श्री केंसेडर ने मुझे सूचित किया कि आपने उनहें कल शाम को फोन करके बताया कि आप अपने कमरें में सेविका की सेवा से संतुष्ट नही हैं। अतः मैने एक नई लड़की आपके कमरे के लिये निर्युक्त की है। मेरी आशा है कि आप पिछली परेशानी को क्षमा कर देंगें। अगर और की समस्या होतो मुझे प्रातः ८ से सायं ५ तक ११०८ पर संपर्क करें।

धन्यवाद
ईलेन कार्मेन
सेवा प्रबंधक
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प्रिय कार्मेन

आपको फोन से संपर्क करना मेरे लिये असंभव है क्योंकि मैं काम की वजह से होटल से प्रातः ७:४५ बजे निकल जाता हूँ और सायं ५:३० या ६:०० से पहले नही लौट पाता। इसी कारण मैनें श्री केंसेडर को फोन किया था। आप पहले ही घर जा चुकी थी। मैने श्री केंसेडर से सिर्फ यही पूछा था कि वो इन साबुन की बट्टियों के बारें में कुछ कर सकते हैं क्या? आपने जो नई सेविका भेजी है उसने सोचा होगा कि मैं आज ही होटल में नया आया हूँ क्योंकि वो स्नानागार में तीन साबुन के अलावा मेरी दवा की अलमारी में भी तीन बट्टियाँ रख गई है। केवल ५ दिनों में मैने साबुन की २४ छोटी बट्टियाँ इकठ्ठी कर ली हैं। आप मेरे साथ ऐसा क्यों कर रही है?

शैली बर्मन
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श्रीमान बर्मन जी,

आपकी सेविका कैथी को यह निर्देश दे दिया गया है कि वो आपके कमरें में साबुन पहुँचाना बंद कर दे और अतिरिक्त साबुन को हटा दे। अगर और की समस्या होतो मुझे प्रातः ८ से सायं ५ तक ११०८ पर संपर्क करें।

धन्यवाद
ईलेन कार्मेन
सेवा प्रबंधक
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श्री केंसेडर जी,

मेरा बड़ा वाला साबुन मिल नही रहा है। मेरे कमरे से साबुन की हर एक बट्टी हटा ली गई है, मेरे खुद के बड़े साबुन की भी। कल रात जब मैं आया तो मुझे चौकीदार को बुलाकर ४ छोटे काशमीरी बुके साबुन मगाँना पड़ा।

शैली बर्मन
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श्री बर्मन जी,

मैने होटल की सेवा प्रबंधक ईलेन कार्मेन को आपकी साबुन की समस्या से अवगत करा दिया है। मुझे ये समझ में नही आता कि आपके कमरें में साबुन कैसे नही था क्योंकि हमारी सेविकाओं को रोज तीन बट्टियाँ छोड़ने का निर्देश है। आपकी स्थिती का जल्दी ही समाधान किया जायेगा। परेशानी के लिये मुझे क्षमा करें।

मार्टिन केंसेडर
सहायक प्रबंधक
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प्रिय कार्मेन जी,

किस गधे ने मेरे कमरे में कैमे की ५४ छोती टिकियाऐं रखी? कल रात जो मैं जब आया तो ५४ साबुन की बट्टियाँ पाई। मुझे ५४ बट्टियाँ नही चाहिये। मुझे सिर्फ मेरा बड़ा वाला साबुन चाहिये। क्या आपको अहसास है कि मेरे पास ५४ साबुन की बट्टियाँ है? मुझे केवल मेरा वाला साबुन चाहिये। कृपया मेरा वाला साबुन दें दे।

शैली बर्मन
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श्रीमान बर्मन,

पहले आपने अपने कमरे में बहुत ज्यादा साबुन की शिकायत की तो मैने उनहे हटवा दिया। फिर आपने श्री केंसेडर से शिकायत की आपके पास साबुन नही तो मैने खुद उन्हे लौटा दिया - २४ कैमे जो पहले हटाया था और तीन बट्टियाँ जो आपको रोज मिलनी चाहिये थी। मुझे ४ काशमीरी बुके के बारे में कुछ नही पता। निश्चित ही सेविका कैथी को ये पता नही था कि मैं आपके साबुन लौटा आई हूँ, अतः वह भी २४ कैमे और तीन रोज के हिस्से के साबुन रखा आई। मुझे ये पता नही कि आपको ये खयाल कहाँ से आ गया कि इस होटल में बड़ा वाला साबुन दिया जाता है। मुझे एक दूसरा बड़ा साबुन मिला जो मैं आपके कमरें में रख आई हूँ।

ईलेन कार्मेन
सेवा प्रबंधक
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प्रिय कार्मेन जी,

मैने सोचा कि आपको मैं अपने साबुनों के खजाने के बारे में नई जानकारी दे दूँ। आज के दिन मिला कर मेरे पास है:

  • दवाईयों की अलमारी के नीचे वाली अलमारी में - ४ की ४ गड्डीयों और २ की १ गड्डी मे १८ कैमे
  • क्लीनेक्स के डब्बे पर - ४ की २ गड्डीयों और ३ की १ गड्डी मे ११ कैमे
  • शयनकक्ष के बगल में - ३ काशमीरी बुके १ गड्डी में, ४ होटल द्वारा दिये गये बड़े साबुन की १ गड्डी, और ४ की २ गड्डियों मे ८ कैमें
  • दवाई वाली अलमारी में - ४ की ३ गड्डियों मे और २ की १ गड्डी में १४ कैमे
  • स्नानागार की साबुनदानी में - ६ कैमे, बहुत गीले
  • टब के उत्तर-पूर्वी कोने पर - १ काशमीरी बुके, थोड़ा इस्तेमाल किया गया
  • टब के उत्तर-पश्चिमी कोने पर - ३ की २ गड्डियों में छ कैमे
कृपया कैथी से कहियेगा कि जब वो सफाई करे तो ध्यान रखे कि गड्डियाँ साफ-सुथरी हैं और जमीं हैं। उसे यह भी सलाह दीजीयेगा कि ४ से बड़ी गड्डियों की गिरने की संभावना होती है। क्या मैं आपको सलाह दे सकता हूँ कि मेरे शयनकक्ष की खिड़की की पट्टी की जगह अभी खाली है और भविष्य की साबुन रखने की अच्छी जगह साबित होगी। एक और बात, मैने अपने लिये एक और बड़ा वाल साबुन खरीद लिया है जिसे कि मैं होटल के लॉकर में रख रहा हूँ जिससे की आगे से कोई गलतफहमीं ना हो।

शैली बर्मन
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इस पन्ने के अनुसार यह एक सच घटना नही है बल्कि बनाई हुई है। हाँलाकि इससे चुटकुले का मजा कम नही हो जाता!

Monday, July 31, 2006

सहनशीलों की असहनशीलता

आजकल पॉलिटिकल-करेक्टनेस (political correctness) का जमाना है। और जो मुझे जानते है वो ये भी जानते हैं कि मुझे यह शब्द और यह विचार हमारी सामन्य दिनचर्या में थोपा गया थोथलापन प्रतीत होता है। राजनेताओं से आपेक्षित यह बात आजकल हर किसी पर लागू होती है। मुझे सच को बिना घुमा-फिराकर कहने की आदत है। मुझे ये भी पता है कि सबके अनुसार सच अलग-अलग होते है, और मैं सबकी अपने अनुसार बिना गलत समझे जाने के डर के सच कहने की स्वतंत्रता में विश्वास रखता हूँ। पर जैसा सभी जानते है, आजकल वैसा संभव नही। आपको अपनी बातों में कईयों 'लेकिन-परंतु' लगाने पड़ते है और हर बात में ये ध्यान रखना पड़ता है कि ना जाने कोन से विचारावलंबियों को या समुदाय को आप नाराज़ ना कर दें। डर-डर के एक-एक शब्द बोलना या लिखना पड़ता है वरना सभी के प्रति सहनशीलता के ठेकेदार आपकी भावानाओं को किसी-ना-किसी के विरोधी करार देगें और आपको असहनशील घोषित कर देगें, भले ही आपने उस बारें में सोचा तक नही हो।

पिछले कुछ दिनों में मैं रिमी सेन के अफ़्रीकनों की सुंदरता पर दिये बयान और कभी अलविदा ना कहना में दर्शाई बेवफ़ाई पर हुई बहस का हिस्सा बना, और एक बात मैने देखी कि असहनशीलता अब नया रूप लेके प्रकट हो रही है। इस नए रूप के अनुसार आपको हर किसी के विचारों से सहमत होना पड़ेगा और पॉलिटिकली-करेक्ट विचार रखने पड़ेंगे। इन विचारों के लोग बहुत सहनशील होते है और जो व्यक्ति इनकी नज़रो में सहनशील नही होता वो व्यक्ति इन लोगों को सहन नही होता। विचारों की भिन्नता को स्वीकारना भूलकर हम सारी दुनिया को एक जैसा बना देना चाहते है - वैसा जिसमें कोई किसी बात पर प्रश्न ना उठा सके और किसी विचार से हटकर सोच ना सके। साथ ही मुझे डर है कि हम किसी बात को हल्का लेकर मज़ाक में उड़ाना भूलते जा रहें है। हम सहनशीलों की असहनशील भीड़ में बदलते जा रहें हैं।

इसी विषय पर एक और रुचिकर बात ये प्रतीत होती है कि हमारे समाज़ के पैमाने के अनुसार कुछ विचार या समूह किसी अन्य विचार या समूह से ज्यादा नाज़ुक होते है और आपकी सहनशीलता सिर्फ पहले समूह के लिये आकांक्षित है, दूसरे के लिये नही। स्त्री-पुरूष के बारे में कुछ बोलो तो लैगिंकवादी (sexism) पर बच्चे-बूढ़े के बारे में बोलो तो "उम्रवादी" (ageism) क्यों नही? काले-सफेद के बारे मे बोलो तो रंगभेद (racism) पर मोटे-पतले के बारे में बोलो तो "वज़नभेद" ("weightism") क्यों नही? हिन्दु-मुसलमान के बारे में बोलो तो धर्म के अनुसार भेद पर राजनेता या व्यापारी को गाली दो तो उद्यम के अनुसार भेद क्यों नही? मैं जरूरी नही इनमे से किसी भी बात का समर्थन करता हूँ, पर मुझे यह रुचिकर लगता है कि किस तरह एक समूह के लोगों का नाराज़ होना समाज को मंज़ूर है - बल्कि अपेक्षित है - और दूसरे समूह के लोगो का नाराज़ होना मंज़ूर नही, और किस तरह इतिहास इन विचारों के विकसित होने में भागी है।

इस प्रविष्टि की उपस्थिती से आप कुछ विषयों में मेरे पक्ष का अंदाजा लगा सकते हैं - और चूँकि ये पॉलिटिकल-करेक्टनेस का जमाना है - मुझे ये बताना जरूरी है कि किसी भी विचार को अनेक पहलुओं से देखने की मेरी आदत है और जरूरी नहीं कि मैं उनसे सहमत होऊँ, पर उन पहलुओं की उपस्तिथी ही उस विचार को रुचिकर बनाती है।

Sunday, July 30, 2006

इंटरनेट पर जाओ - मच्छर भगाओ

संगणक (computer) और अंतर्जाल ने दुनिया कैसी बदल दी है वह किसी से छुपा नही है। चूहे के द्वारा स्पर्श से शुरू अंतर्जाल ध्वनि और चलचित्रों के माध्यम से हमारी आँखों के साथ-साथ हमारे कानों पर भी छा रहा है। नये अनुसंधानों के अनुसार वह दिन भी दूर नही जब हम गंध भी अंतर्जाल पर बाँट सकेंगे। जालस्थल के द्वारा भेजे गये विशिष्ट संदेशों को आपके संगणक से जुड़ा यंत्र अपने अंदर स्थित दो-तीन गंधो को मिलाकर नई गंध बना देगा (जैसे कि अभी रंग बनते हैं)। अभी-अभी प्राप्त सूचना से ये ज्ञात हुआ है कि कोरिया स्थित एम्पास कंपनी ने ऐसा निःशुल्क टूलबार बनाया है जिसके इंस्टाल करने से मच्छर भाग जाते हैं। कंपनी के अनुसार ये टूलबार संगणक से ऐसी ध्वनी उत्‍पन्न करवाता है जिसे सिर्फ मच्छर ही सुन सकें और आसपास से भाग जायें। जिन वस्तुओं का संगणक/अंतर्जाल से कुछ लेना-देना नही वहाँ भी इनकी उपयोगिता आश्चर्यचकित करने वाली है। आने वाले समय में विज्ञान-कल्प की कथाऐं असंभव नही लगती!

साथ ही: चिठ्ठे दक्षता से पढ़ना
यदि आप कई चिठ्ठे पढ़ते हैं और उनमें कोई नई प्रविष्टि आई या नही की जाँच करने चिठ्ठों पर जाते हैं, तो चिठ्ठों के फ़ीड पाठकों की मदद से काम बहुत ही आसान हो जाता है। नई खबर के लिये नारद जी के दरवाजे भी जाने की जरूरत नही, और तो और, आप प्रविष्टियाँ भी बिना चिठ्ठे पर जायें पढ़ सकते हैं। ब्लॉगलाईन्स (bloglines) नामक फ़ीड पाठक सरल और उपयोगी है। यही नही समस्त समाचारों की ताजा जानकारी इससे जुटाई जा सकती है। जो लोग इसके बारें में नही जानते हों वे आज ही जानकारी प्राप्त करें और अंतर्जाल(धन्यवाद आलोक जी) जाल २.० की क्रांति मे शामिल होवें! ऐक बार फायदे जान जायेंगे तो फिर ना नही कर पायेंगे!

उपलेख (जुलाई २९): आप मच्छर का टूलबार यहाँ से डाऊनलोड कर सकरे हैं। एम्पास के जालपृष्ठ को पढ़ने के लिये गूगल अनुवादक का उपयोग करें, हांलाकि सफलता ज्यादा नही मिलेगी। टूलबार का इंस्टालेशन भी कोरियन भाषा में है!

Saturday, July 29, 2006

तर्क-वितर्क, उम्र-परिपक्वता

अभी मेरी उम्र ज्यादा नही है। (महा)विद्यालय परिसर के बाहर कदम रखे हुये गिनती के दिन हुऐ हैं। फिर भी पिछले दो-चार वर्षों मे कितना कुछ पढ़ने से (मुख्यतर चिठ्ठों पर) और बहुरूचि लोगों के संपर्क मे आने पर पर ऐसा महसूस होता कि सोच में बहुत गहरा परिवर्तन आया है। लोग कहतें है कि पच्चीस वर्ष की आयु तक इंसान की सोच पत्थर की लकीर की तरह कठोर हो जाती है और वह बाकी की सारी जिंदगी उनही विचारों के दायरे मे बिना किसी खास परिवर्तन के जीता है। शायद मेरी उम्र का भी ये पढ़ाव अंत की और है।

पिछलों चार सालों के अंदर, जबसे मैनें राजनिती और अपने आसपास की दुनिया में रूचि लेनी शुरू की, मैंने ना जाने कितनी बार अपने विचार पैने किये, बदलें और नये विचार अपनाये। अगणित बहसों में हिस्सा लिया। अगर ये कहूँ कि लगभग बहस के हर संभव विषय - जिनमें मेरी रूचि और जानकारी है - पर मैं भाग ले चुका हूँ और मेरी राय बन चुकी है तो अतिश्योक्ति नही होगी। लिनक्स-विंडोज़, आरक्षण, नारी अधिकार, समलिंगी लोग, भारत-पाकिस्तान, महात्मा गाँधी, चुनाव, लोकतंत्र, बलात्कार की सजा, पूँजीवाद-समाजवाद-साम्यवाद, आस्तिकता-नास्तिकता, हिन्दु-मुस्लिम, ईसाई धर्म परिवर्तन, ईराक, इतिहास की सच्चाई, आदि...के विषयों पर तार्किक विवाद, कटाक्ष और खौलती गाल-गलोच समस्त का उपयोग कर या देख चुका हूँ। लेकिन आज तक, बिना अपवाद, मुझे एक भी एसा मनुष्य नही मिला जिसके विचार पूरे विवाद के तर्को के आधार पर अपनी शुरूआती स्थिती से क्षणिक भी भटके हों। मेरे तर्क किसी की राय में तिलमात्र परिवर्तन नही कर पाये। ना ही उनकी राय का मेरे विश्व-वृत्त पर असर हुआ।

ऐसा नही है कि मैं बिल्कुल ही हठधर्मी हूँ। अपने अनुसार मैं सदा ही खुले विचारों का इंसान हूँ - जैसे कि हर इंसान होता है। परंतु अधिकतर बहसों में मेरा पक्ष मुझे बेहतर लगता है - दूसरे पक्षों के गुणों को लेकर भी। ऐसा भी नही कि मेरे विचारों में परिवर्तन नही आया। अमित वर्मा के चिठ्ठे से मेरा झुकाव पूँजिवाद की और बढा है, शांत चीख (blank noise) ने स्त्री उत्पीड़न के बारे में संवेदना जगाई है, और एलन और बारबरा पीज़ की पुस्तक "आदमी क्यों नही सुनते और औरतें नक्शा क्यों नहीं पढ़ सकती" ने समलैगिकों के प्रति मेरी राय में काफ़ी अंतर डाला है। परंतु ये भी तब ही कि शुरू से ही मेरी विचार इन विषयों मे कच्चे थे, या ये कहें मैं कट्टर नही था, इसीलिये जो मिला उसी की और बिना प्रतिरोध झुक गया। किंतु जिन बिंदुओं पर मेरे विचार लगभग पक्के हो चुकें है, मुझे नही लगता वे कभी बदलेंगे। ये कथन मेरे चरमपंथी की और इशारा कर सकता है पर मेरा अनुभव कहता है कि सभी के साथ ये होता है। और फिर जब सभी अपनी राय को बेहतर मानते हैं तो इस दृष्टि से सभी चरमपंथी हुये ना?

परिचर्चा पर भी कुछ-एक विषयों पर बहस भी मेरी राय को और मजबूत बनाती है। यहाँ तक की मेरा ये विश्वास हो गया है कि तर्कों से किसी के भी विचार, जो एक बार विचार बना लेता है, परिवर्तित ही नही किये जा सकते। और तर्क-वितर्क मुझे अब सिर्फ बैठे-बिठाये का मनोरंजन या भावनाओं का विस्फोट प्रतीत होता है, ना कि अपने विचारों का आदान-प्रदान कर समस्या के हल की और पहुँचने का साधन। मेरे अनुसार कोई भी बहस अपने-अपने पक्षों की घोषणा बे बाद समाप्त हो जानी चाहिये, क्योंकि विपरीत पक्ष को अपने पक्ष मे लाने के समस्त प्रयास सदा ही व्यर्थ हैं। मुझे ये नही पता कि इस बात का अनुभव इतनी बड़ी बात होनी चाहिये या नहीं, लेकिन मेरे लिये तो यह मानव मनोवृत्ति की अनापेक्षित खोज थी। यह भी नही जानता कि इस बात की जानकारी मेरे जीवनदर्शन के लिये लाभदायक है या हानिकारक।

एक और बात जो मुझे अब समझ मे आई वो ये कि कोई कितना भी बड़ा आदमी हो (औहदे, शौहरत या दौलत में) उसकी कही हर बात को मूल्य नही दिया जा सकता। निश्चित ही ये वाक्य किसी को शायद जाहिर प्रतीत होता हो, मेरे जीवन-दर्शन में, जहाँ मैं अपने अध्यापकों और महापुरूषों के विचारों को बिना प्रश्न मूलमंत्र मानता था, एक झटकेदार अंतर है। इतिहास को जो मैं सत्य मानता था उसमें भी कितने प्रश्नचिन्ह लगे हैं ये जाना। यहाँ तक कि हम विश्वास के साथ ये भी नही कह सकते ही महात्मा गाँधी के अंतिम शब्द 'हे राम!' थे - इसमें भी राजनीतिक चालों की धोखेबाज़ी का आरोप है। और फिर सभी महापुरूषों के विचारों मे इतनी विभिन्नता देखी-पढ़ी है कि सच और झूठ भी आपस मे घुल-मिल गया है। जिंदगी काली-सफेद वाली सरलता से इतने रंगों में रंग कर भ्रामक हो गई है।

शायद जीवन के इन मूल्यों को समझना ही परिपक्वता है। मेरी माँ कहती है कि मैं पागल हो गया हूँ/होने वाला हूँ क्योंकि मैं अभी से ही बहुत ज्यादा सोचने लग गया हूँ।

Thursday, July 27, 2006

ब्रह्मांड का अंत: क्या जानना आवश्यक?

कैसी मौत चाहेगें आप? धीमे धीमे फैलते अंतरिक्ष में ठंडे हो कर "बिग चिल" से मरना, या फिर तपाक से सिकुड़ते ब्रह्मांड मे ऊष्मा से पिघल कर "बिग क्रंच" से? या फिर कहिये तो तेजी से विस्तारित होते संसार के साथ तुरंत विस्फोटक ढंग से अ‍त? अथवा आप उन आशावादी लोगो मे से है जो विश्‍वास करतें है कि ठंडे संसार मे इंसान अणु-परमाणुओं से बने धूल के अंतहीन गुब्बारे की तरह, या फिर गर्म संसार मे अनंत ऊर्जा की उपलब्धि से निर्मित काल्पनिक दुनिया (virtual reality) में अपना अस्तित्व बनाये रख सकेगा। और कुछ नही तो आप सोचते होगें कि तकनिकी प्रगति हमें इस ब्रह्मांड से निकाल कर दूसरे ब्रह्मांड मे जाने का मार्ग सुझा देगी, शायद वर्महोल (wormhole) द्वारा? नही तो आप शायद उन निराशावादी लोगों मे से हैं जो ये मानते हैं कि मानव का अंत ब्रह्मांड के अंत से पहले हो जायेगा, जैसे की मानव जाति प्राकृतिक ढंग से लुप्त हो जायें अथवा हम लोग आपस मे ही मर-खप जायें? (मुझे इसी श्रेणी में गिनिये)

क्या यह जरूरी है इन प्रश्‍नों को पूछना? या इनका उत्तर जानना? क्या हमें चिंता है कि हमारे पर-पर-...पुत्रों-पुत्रियों का क्या होगा? क्या होनी चाहिये? ब्रह्मांड शास्त्र (cosmicology) का अस्तित्व क्यों है फिर? अंत में, क्या मानव अपनी बुद्धी की वज़ह से शापित है कि जानकर भी कि कुछ हल नही निकलेगा, कि कुछ हम करें - या ना करें - कुछ बदल नही पायेगा, फिर भी हम मज़बूर हैं इन प्रश्‍नों को सोचनें कि लिये, और शायद बिना जाने ही नष्ट हो जाने के लिये? क्या ज़रूरत से ज्यादा अकंलमंदी शाप है?

संदर्भ: क्या ब्रह्मांड का अंत आवश्यक?

Tuesday, July 25, 2006

केक बराबर-बराबर बाँटना

यदि आप ने अपना जन्मदिन मनाया अथवा किसी के जन्मदिवस के समारोह में गये हों तो निश्चित ही आपने केक काटा या खाया भी होगा। निश्चित ही आपको छोटा टुकड़ा ही मिला होगा। क्या करें सभी को अपना-अपना टुकड़ा छोटा लगता है ये मुरफ़ी मरफ़ी (धन्यवाद रवि जी) का नियम[१]है। और यदि आपने कभी अपने एक से ज्यादा बच्‍चों में कुछ चीज (जिसकी गिनती ना की जा सके) बाँटने की कोशिश की होगी तो एक ना एक बार तो आप पर ये भी आरोप लगाया गया होगा कि आप 'छोटे बेटे'/'बहन'/आदि को बाकी बच्‍चों से ज्यादा प्यार करतें है और उसे बड़ा टुकड़ा देते हैं। यदि आप सोने के तराजू से भी तोलकर बाँटे तो भी आरोप आपका साथ नही छोड़ते, क्योंकि किसी को बराबर मिलना अलग बात होती है जबकि किसी को बराबर मिलने की संतुष्टि होना अलग। क्या कोई ऐसा तरीका है जिससे सभी को अपने अपने टुकड़े से खुशी हो? जिससे हर कोई सोचे कि उसका टुकड़ा किसी और से टुकड़े से क्षणिक भी छोटा नही, हाँ शायद थोड़ा बड़ा ही है? जिससे बराबर भले ही ना मिले पर सभी को लगे कि उनको बेहतर हिस्सा मिला?

जी बिलकुल है। इसे गणित में उचित केक काटनें की समस्या कहतें है। समस्या का सार है कि किसी केक (या अन्य चीज) को - जो की हर दिशा से समान हो - कुछ लोगों - जिनकी केक के विभिन्न भागों के बारें मे पसंद अलग ना हो और जो सभी केक का बड़ा से बड़ा टुकड़ा चाहतें हो - में सफलतापूर्वक कैसे बाँटा जाये? आपके पास काटने के चाकू के सिवा कुछ नही है।

चलिये दो लोगो से शुरू करते है। क्या हल हो सकता है इसका? ये तो सरल है, 'मैं काटू तू चुन'। एक व्यक्ति अपने हिसाब से बराबर-बराबर भागों मे काटेगा और दूसरा अपने हिसाब से बड़ा टुकड़ा चुनेगा, बचा हुआ पहले व्यक्ति का हिस्सा। चूँकि दूसरे ने पहले चुना उसे शिकायत नही कि उसे छोटा मिला, और चूँकि पहले ने अपने हिसाब से बराबर ही काटे थे तो उसको शिकायत नही उसे छोटा मिला क्योंकि उसे तो कोई भी मिले वो अच्छा।

अब तीन लोगों का सोचते हैं। पर जैसा कि गणित में अधिकतर होता है, जैसे ही खेल के खिलाड़ियों की संख्या बढ़ती है, सर्वश्रेष्ठ हल की कठिनाई भी तीव्र गति से बढ़ती है। इसके हल को तो मुझे ढूढ़ना तो दूर समझने में ही काफ़ी समय लग गया। अगर आप ढूँढ लेते है तो अपने को जीनियस मान कर पीठ थपथपा लीजिये। मानिये तीन लोग अमर, अकबर और एन्थोनी है। तो सबसे पहले अमर केक को अपने अनुसार तीन बराबर के टुकड़ों में काटेगा। अब अकबर उन तीन टुकड़ों को बड़े से छोटे क्रम में बाँटेगा। यदि पहले स्थान के लिये दो टुकड़े बिलकुल बराबर हैं अकबर की दृष्टि में तो वो कुछ नही करेगा (इससे फर्क नही पड़ता की तीसरा भी बराबर है या दोनो से छोटा है)। इसे स्थिती १ मान लें। और यदि ऐसा नही है तो अकबर सबसे बड़े (उसकी नज़र में) टुकड़े को काट कर उसे दूसरे स्थान पर आने वाले टुकड़े के बराबर कर देगा। कटे हुये केक के टुकड़े (इसे आगे से 'कतरन' कहा जायेगा) को अलग रख दिया जायेगा। इसे स्थिती २ मान लें। अब तीन टुकड़ों मे से एन्थोनी अपने हिसाब से सबसे बड़ा टुकड़ा चुन लेगा।

यदि हम स्थिती १ में है तो इसके बाद अकबर बाकी दोनो में से अपने लिये बड़ा टुकड़ा चुन लेगा, और अमर बचा हुआ टुकड़ा। चूँकी एन्थोनी ने सबसे पहले चुना है उसको कोई शिकायत नही होनी चाहिये। क्योंकि अकबर के अनुसार दो टुकड़े बराबर थे (तभी तो हम स्थिती १ में है, नही होते तो अकबर टुकड़े की कतरन काट लेता और मामला दूसरा होता) इसलिये यदि एन्थोनी ने सबसे बड़ा ले भी लिया तो भी उसके लिये भी सबसे बड़ा बचा है और वो उसे ले सकता है। और जब अमर ने अपने अनुसार सब बराबर ही काटे थे तो फिर उसको क्या चिंता बाकी दोनो क्या लें, उसका टुकड़ा निश्चित ही किसी से कम नही।

यदि हम स्थिती २ में है और हम अकबर द्वारा काट के अलग रखी गयी कतरन को भूल जायें तो पुनः स्थिती १ जैसी अवस्था हो जाती है क्योंकि अभी भी दो टुकड़े अकबर को बराबर लगते हैं। इनका बँटवारा भी वैसे ही हो सकता है: एन्थोनी पहले चुनेगा, तद्पश्चात अकबर और फिर अमर। एक छोटी सी बात है पर। यदि एन्थोनी ने उस टुकड़े को लिया जिसे अकबर ने काटा था और कतरन निकाली थी, तो अकबर बचे हुये टुकड़ों मे से बड़ा वाला चुन सकता है और अमर अंतिम टुकड़ा। पर यदि एन्थोनी ने कोई और टुकड़ा लिया (बिना कटे दो में से) तो अकबर को उसके द्वारा काटा गया ही लेना होगा। ऐसा करने पर हम उसके साथ अन्याय नही कर रहे क्योंकि कतरन निकालने के बाद वो टुकड़ा सबसे बड़ा टुकड़ा बन चुका है अकबर के अनुसार। हम उसे उसके अनुसार बड़ा ही दे रहे हैं। अंत मे अमर बचा टुकड़ा ले लेगा। हमे अकबर को कटा हुआ टुकड़ा देना पड़ेगा क्योंकि वो टुकड़ा उसकी नज़र मे सबसे बड़ा है जबकि अगर अकबर कटा टुकड़ा नही लेता तो अमर के लिये वो टुकड़ा बचेगा जिससे अमर निश्चित ही संतुष्ट नही होगा (क्योंकि उसने तो सब बराबर काटे थे, अकबर ने कतरन निकाली तो फिर वो तो अमर की दृष्टि में छोटा हो गया ना)। इस प्रक्रिया में चूँकि हमारा बँटवार स्थिती १ के अनुसार ही हुआ तो सभी संतुष्ट होने चाहिये और सभी को लगना चाहिये कि उसका टुकड़ा किसी छोटा नही।

लेकिन अभी वो कतरन तो बची हुई है। उसे भी तो बाँटना है। उसके लिये अकबर और एन्थोनी मे से किसी एक को उस कतरन के तीन बराबर-बराबर टुकड़े करने होंगे। फिर अकबर और एन्थोनी में से जिस ने टुकड़े नही किये अभी वो पहला टुकड़ा (कतरन का टुकड़ा) चुनेगा, और जिस ने टुकड़े करे वो दूसरा। अमर बचा हुआ कतरन का टुकड़ा लेगा। क्योंकि अकबर और एन्थोनी मे से जिसने टुकड़े करे उसके लिये तो सभी बरबर है, और जिसने पहले चुना उसको भी कोई शिकायत नही। पर चूँकि अमर ने शुरू मे तीन बराबर टुकड़े किये थे, कोई भी कतरन जो अकबर ने काटी अगर वो अमर को ना भी मिले तो उसे आपत्ति नही होनी चाहिये (यही कारण है कि स्थिती २ में अगर एन्थोनी अकबर द्वारा कतरा टुकड़ा नही लेता तो वो अकबर को ही लेना पड़ता क्योंकि अमर वो नही चाहेगा)। इसलिये यदि अमर को कतरन के तीन छोटे टुकड़ों मे से सबसे छोटा भी मिले तो भी वो खुश क्योंकि उसे जितना मिला उतना भला।

हम्फ!! तीन लोगो के साथ ये हाल हो गया समस्या सुलझाने मे तो चार या ज्यादा से क्या होगा? हांलाकि हल का तरीका लगभग वही रहेगा: पहला चार टुकड़े करे, फिर दूसरा दो की कतरन काट कर तीन बराबर बना दे, फिर तीसरा एक की कतरन काटकर दो बराबर बना दे और अंत मे चौथा अपना टुकड़ा चुने और बाकी विपरित क्रम मे चुने, इत्यादि...। अधिक जानकारी के लिये विकीपीडिया, ये पन्ना और गूगल खोज देखें।

सारी कहानी का सार? केक छोटा मिले तो चुपचाप खा लें, बड़े-बड़े के चक्कर में बहुत अक्कल खर्च होती है। और हाँ, बच्‍चे एक या दो बस :)

[जिन्हें बाल की खाल निकालनी हो उनके लिये: यदि पहला व्यक्ति, या हल की प्रक्रिया में कोई भी व्यक्ति, बराबर-बराबर हिस्सें करने की बजाय गलती से छोटा-बड़ा काट देता है तो हम इस समस्या को अलग हिस्सों के लिये अलग से हल कर सकतें हैं। अर्थात एक केक की बजाय तीन छोटे केक बाँटेंगे इसी तरह से।]

अंत मे इस प्रविष्टिं के पाठको से एक प्रश्न: क्या आपको मेरी लेखन शैली भाषणबाजी (patronizing) प्रतीत होती है? कुछ लोग कहतें है कि मैं ऐसा लिखता हूँ, और यदि ऐसा है तो मैं निश्चित ही सुधारना चाहता हूँ।

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↑[१] मुरफ़ी मरफ़ी के नियमानुसार: जब कोई काम गड़बड़ हो सकता है तो वो गड़बड़ हो के ही रहेगा।

Sunday, July 23, 2006

मनुष्य तू बड़ा महान है

हिन्दी चिठ्ठाजगत में विचरण करते अब मेरे लगभग दो महीने पूरे हो गये हैं और मुझे सबसे आश्चर्यमयी और अनपेक्षित बात ये लगी कि आधे से ज्यादा लेखक यहाँ कवि है। निश्चित ही ये अनुपात हिन्दी भाषी जनता में कवियों के अनुपात से अत्याधिक है। यही नही, परिचर्चा के कविता बुनो धागे में भी लोग ऐसी ऐसी रचनाये स्वतः ही लिख जाते है कि मुझ जैसे काव्य-अनभिज्ञ को ये लगता है कि मैं किन साहित्य के महानुभवों के बीच आ फँसा! अभी तो केवल यही कारण समझ में आता है कि कविजन चिठ्ठे की और अधिक आकर्षित होते हैं क्योंकि शायद उनहे अपने काव्य के श्रोतागण मिल जाते हैं और प्रशंसकगणों का विस्तार बढ़ जाता है। दूसरा खयाल यह है कि जैसे प्रेम कथित रूप से इंसान को शायर बना देता है, उसी तरह चिठ्ठा चिठ्ठेकार को कवि बना देता है! किसी को इस विषय पर शोध करना चाहिये। कोई और व्याख्या है क्या?

अब मैंने तो जिंदगी में कोई कविता लिखी नही कि अपनी कविता यहाँ उद्धृत कर सकूँ, तो आप सभी को किसी और के द्वारा रचित मेरी पसंद की ही कविता से काम चलाना पढ़ेगा! इसी के साथ इंसान की आपसी विध्वंसक गतिविधियों के विरूद्ध मिल-जुल कर अपना भविष्य निवारने की आशा में समर्पित...

धरती की शान...
धरती की शान, तू भारत की संतान, तेरी मुठ्ठिओं मे बंद तूफ़ान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है, भूल मत, मनुष्य तू बड़ा महान है ॥२॥

तू जो चाहे पर्वत-पहाड़ों को फोड़ दे, तू जो चाहे नदियों के मुख को भी मोड़ दे,
तू जो चाहे माटी से अमृत निचोड़ दे, तू जो चाहे धरती को अंबर से जोड़ दे,
अमर तेरे प्राण...
अमर तेरे प्राण, मिला तुझको वरदान, तेरी आत्मा में स्वयं भगवान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है, भूल मत, मनुष्य तू बड़ा महान है।

नैनो में ज्वाल, तेरी गति में भूचाल, तेरी छाती मे छिपा महाकाल है,
पृथ्वी के लाल, तेरा हिमगिर सा भाल, तेरी भृकुटि में तांडव का ताल है,
निज को तू जान...
निज को तू जान, जरा शक्ति पहचान, तेरी वाणी में युग का आव्हान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है, भूल मत, मनुष्य तू बड़ा महान है।

धरती सा धीर तू है, अग्नि सा वीर तू जो चाहे तो काल को भी थाम ले,
पापों का प्रलय रुके, पशुता का शीष झुके, तू जो अगर हिम्मत से काम ले,
गुरू सा मतिमान...
गुरू सा मतिमान, पवन साधु गतिमान, तेरी नभ से भी ऊँची उड़ान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है, भूल मत, मनुष्य तू बड़ा महान है।

धरती की शान, तू भारत की संतान, तेरी मुठ्ठिओं मे बंद तूफ़ान है रे,
मनुष्य तू बड़ा महान है, भूल मत, मनुष्य तू बड़ा महान है।


Manushya Tu Bada M...


यहाँ से डाऊनलोड करें।

Saturday, July 22, 2006

## Moved ##

As you must have noticed that this blog is practically defunct. I haven't posted anything since ages and frequency of posts had been abysmal. Subsequently, this blog has been terminated.

My blogging continues afresh on

दोस्त कैसे बनायें?

कुछ लोग होते हैं, जैसे कि मेरा छोटा भाई, जिनको दोस्तों की कमी नही होती। उनमे अपने आप ही वो जादू होता है जिससे लोग उनकी तरफ खिचे चले आते हैं और दोस्ती के उत्सुक होते हैं। ऐसे लोग अकसर महफिल की शान होते है और दोस्तों के बीच बादशाह। और कुछ लोग मेरी तरह अंतर्मुखी होते हैं जिनहें दोस्ती करने का शौक तो बहुत होता है पर दोस्त बनाने और बनाये रखने की कला नही आती। अंतर्मुखी और बहिर्मुखी लोगो की सामाजिक निपुणता इतनी अलग होती है कि दोनो के लिये अकसर ये समझना मुशकिल हो जाता है कि दूसरा ऐसा क्यों है। इसी लिये जब मैने डैल कार्नेजी (Dale Carnegie) की "दोस्त कैसे बनायें और लोगो को प्रभावित कैसे करें" (How to make friends and influence people) नामक पुस्तक पढ़ी तो बहुत ही अच्छी लगी। लेकिन यही पुस्तक मैरे बहिर्मुख मित्र ने पढ़ी तो उसे सब कुछ सामान्य लगा।

ऊपरी और से देखा जाये तो निश्चित ही किताब में कोई अत्याधुनिक जानकारी नही है और बहिर्मुख लोग ये बातें अपने आप ही जान लेते है, पर फिर भी सभी व्यवहार के गुणों को एक जगह पर लिख देने से मुझे तो उपयोगी जानकारी मिली। पुस्तक सार जनकल्याण हेतु यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। हाँ, लिखने से पहले कह दूँ कि कुछ लोगो को यह झूठा व्यवहार गलत लग सकता है पर मैं तो ये मानता हूँ कि अपने व्यवहार को इस तरह बदलना कि आपके सहकर्मी आपको पसंद करें, और इस प्रक्रिया में अच्छा मनुष्य बनना, कुछ गलत नही है। तो चलिये देखें आप कैसे दुनियाँ की आँखो का तारा बन सकते है!!

हमेशा ध्यान रखें
कभी मीन-मेंख ना निकालें।
सबका भला बोलें। पीठ पीछे चुगली ना करें।
दूसरों के लिये अपना समय, धन और नीतीयाँ त्याग कर सकें तो करें।
बिना स्वार्थ के दूसरों का भला करने की कोशिश करें

लोगो से मिलना
लोगो के नाम याद रखे और नाम लेकर बुलावें। लोग अपना नाम सुनना पसंद करते हैं।
सभी से मुस्‍कुरा कर मिलें। यह आपकी खूबसूरती बढ़ाने का सबसे सस्ता और कारगर तरीका है।

जब किसी से बात करें
लोगों से वो बात करे जो वो सुनना चाहते हों, वो नही जो आप कहना चाहते हों। उनकी पसंद के विषय छेड़ें।
ध्यान से सुने और रुचि दिखायें।
ऐसे प्रश्न पूछे जिनके उत्तर देने में दूसरे को खुशी मिलती हो।
लोगों से उनके बारे में बात करें और उनकी सफलता की बढ़ाई करें।
दूसरे को ज्यादा बोलने दें। अपनी बढ़ाई ना करें। नम्र बने।
दूसरे को महत्वपूर्ण महसूस होने दे। हर कोई खुद की महत्वता को ज्यादा आंकता है। इसे बढ़ावा दे।
तर्क-वितर्क से दूर रहें। आप तर्क जीत सकतें है, मित्रता नही। दूसरे को जीतने दें।
किसी को भी मुँह पर गलत ना कहें। पूर्वाग्रह से कार्य ना करें। विचारों को खुला रखें।

विवाद की अवस्था में
खुद को दूसरे के स्थान पर खड़ा कर के सोचें। दूसरे की दृष्टि से देखनें की कोशिश करें।
यदि आपकी गलती हो तो तुरंत खुशी से स्वीकार करें। दूसरे से पहले ही स्वयं अपनी भ्रत्सना करें।

अगर दूसरे की गलती हो तो
गलती बताने से पहले ईमानदारी से अच्छी बातों की प्रशंसा करे।
स्वीकार करें की आप से भी गलतियाँ हुई हैं।
गलतियों की तरफ अप्रत्यक्ष रूप से इशारा करें।
गलती सुधारने के लिये प्रोत्साहित करें। गलती की गंभीरता के बारे में अप्रत्यक्ष रूप से बतायें।
दूसरे को अपनी गर्दन बचाने का मौका दें। गलती के लिये सीधा नंगा ना करें।
काम के सही होने पर उत्साह बढ़ायें। उसे उसके गुणों को विकसित करनें को उकसायें।

कुछ करवाना हो तो
किसी से कुछ करवाना हो तो काम को करने वाले के लिये लाभ के रूप मे प्रदर्शित करें।
आज्ञा या आदेश की जगह सलाह दें या प्रश्न करें।
एहसान माँगे। लोग आप पर एहसान करना पसंद करते हैं। आभार प्रकट करें।
स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करायें।

मौल-तौल के समय (negotiations)
पहले उन बातों को सामने लायें जिनमे दोनो पक्षों की राय एक समान है।
दूसरे के विचारों की दृष्टि से बात करें और उसके लाभ को केन्द्र में बनाये रखें।
हर व्यक्ति के काम करने के दो कारण होते है: एक वास्तविक कारण और एक आदर्श कारण। उसके आदर्श कारण की दुहाई दें।

अपने विचारों को मनवाना
विचारों को नाटकीय ढंग से प्रस्तुत करें।
लोगों से राय लें और उनकी सलाह की इज्जत करें। उनहें महसूस होने दे कि विचार उनका है, आप तो भर उसे विकसित कर रहे हैं।

निश्चित ही ये तथ्य नये नही हैं, आप अच्छा ईंसान बनेंगें तो लोग स्वतः ही आपको पसंद करेगें। अंत मे ये सब तभी हो जब आप चाहते हैं कि दूसरे आपको पसंद करे और आप और सामने वाला दोनो एक ही स्तर के हों (मतलब कि कोई किसी पर आदेश देने की स्थिती मे ना हो तो), वरना तो जैसे चाहे करें। समय और परिस्थिती के अनुसार कुछ बिन्दुओं का उल्लंघन भी करना ही पड़ता है। और जैसे लेखक ने लिखा है इन गुणों को अपनी जिंदगी में ईमानदारी से उतारें, दोस्त बनाने के तुरत-फुरत नुस्खे की तरह ना माने। सामनेवाला पहचान जायेगा। अधिक जानकारी के लिये पुस्तक की अमॉज़न पर कड़ी देखें।

Tuesday, July 18, 2006

शादी का सवाल

शायद मेरी शादी का खयाल दिल मे...नही-नही अभी एसी कोई बात नही है पर मान लीजिये कि हो तो? मान लीजीये कि अप्रवासी भारतीयों की चट-मंगनी-पट-ब्याह की परंपरा का पालन करते हुये मुझे आदेश आ जाये कि इन बीस लड़कियों मे से एक चुन के फंदा बाँध लू तो? शर्त ये है कि हर लड़की को एक बार देखना है और निर्णय लेना है कि बात बनेगी कि नही। अगर बनेगी तो वहीं मूर्हत निकाल के सगाई-शादी तय कर दी जायेगी, और बात नही बनी तो लाईन मे अगली कन्या के घर चाय-पानी पीने चलेंगे। एक बार ना कहने के बाद निर्णय बदलना तो नाक-कटाने के बराबर है सो वो तो विकल्प ही नही। और मैं भी सीधे-साधे इंसान की तरह सबसे बढिया बीवी चाहूँ तो? भई, ये तो समस्या हो गई ना। किस को हाँ करूँ और किस को ना? जल्दी हाँ कर दी तो आने वाले बढ़िया अवसर हाथ से निकल जायेंगे, और देर लगाई तो ना जाने मौका हाथ आते हुये भी ठुकरा दिया हो तो?

कुछ ऐसी ही समस्या सोची होगी ऑपरेशन्स रीसर्च (operations research) वालों ने तभी तो उन्‍होने 'सुल्तान की दहेज की समस्या' बना डाली। और ये समस्या मियाँ-बीवी ढूढनें के अलावा नौकरी के साक्षात्कार में दस पदाभिलाषियों को चुनने जैसे कामों में भी आती है। आप चाहें तो इसे एक मजेदार खेल भी बना सकते है और अपने मित्रगणों को दिमाग लगाने को मजबूर कर सकते हैं। इस रोचक समस्या का हल भी ज्यादा कठिन नही और जो गणित की और रूझान रकते हो वे व्युत्‍पत्ति (derivation) के लिये इस लेख (PDF) को पढ़ सकते हैं। विकीपीडिया और ये पन्ना भी देखें। संक्षेप में हल यहाँ प्रस्तुत है:

आप पहले एक-तिहाई पदों में से किसी को ना चुने और इस अवधि में आगे मिलने वाली योग्यता का अनुमान लगायें। एक-तिहाई पदों के बाद उस पहले प्रार्थी को चुने जो कि प्रथम एक-तिहाई के सर्वश्रेष्ठ से भी अधिक पसंदीदा हो। ये मानके चला जा रहा है कि आप हर प्रार्थी को आंक सकते है और किसी मानक के रूप में एक-दूसरे से तुलना कर सकते हैं। इसे तकनीकी भाषा में उपयोगिता फलन (utility function) कहते हैं। तो n लोगो या वस्तुओं मे से सर्वश्रेष्ठ के चुनाव की संभावना तब अधिकतम होगी जब आप n/3 तक किसी को ना चुने और फिर अगला जो भी इनमें से सर्वश्रेष्ठ से बेहतर हो, या फिर अंतिम विकल्प हो, उसे चुने। अब प्रश्न ये है कि भैया जब हमारी होने वाली दुलहनों को ये फ़ॉर्मुला पता लगेगा तो फिर लाईन शुरू करनें के लिये तैयार कौन होगी?

अगर आपको इस तरह की व्यवाहारिक गणित और तर्क (logic) की पहेलियाँ पसंद हो तो इस चिठ्‍ठे को देखते रहीयेगा।

Book Review - Music of the Primes by Marcus du Sautoy (2003)

I can say, with some modesty, that I am familiar with the subject of mathematics more than an average person is. Despite that I hadn’t ever ...